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Showing posts from December, 2018

वक़्त की तरह नहीं...

एक जमीन अगर होता वक़्त एक रास्ता सा, तो हम चलकर कुछ दूर गिरते-पड़ते, भटकते हुए से कहीं पर, किसी जगह से वापस लौटकर आ सकते। अगर आसमान होता ये वक़्त तो हम ये जानते होते कि अगर नही हों बादल तो ये नीला होगा इसमें सूरज रहेगा चाँद तारों से मिल पाएंगे कई रंगों के बादल दिखते और हम इंतजार में रहते कि कल फिर नीले परदे पर सभी तस्वीरें नज़र आएंगी। अगर मेरी मेज पर रखी हुई सारी चीजों के जैसा होता ये वक़्त तो जिस भी चीज को जब चाहे उठाकर दूसरी जगह रख पाता; हालाँकि मैने किसी को नही रखा इस तरह कभी भी, ये पहले से अपनी तय जगह पर हैं जिसको शुरू में बाँध दिया था... और मेरी नजरें ढूंढा करती हैं उनको उसी जगह पर; सरस्वती की छोटी प्रतिमा, दो मोमबत्तियां, लैपटॉप, कलमदान कुछ किताबें, मेज के ऊपर टैगोर की तस्वीर छोटे-छोटे दो गमले जिनमे काफी वक्त से मैं फूलों को उगाने की कोशिश में हूं, ये सभी चीजें मेरे साथ उठती-बैठती हैं, बातें करती हैं वक़्त की तरह नही। 25 दिसंबर 2018 Copyright@ 'अनपढ़'

अकेलापन...

अकेलेपन को उड़ेलते हुए चाहती है ये कलम जी जान से कि, यूं ही लगता रहे ढ़ेर सादे कागजों का एक विशालकाय पहाड़ की तरह; जिसकी गहनाती हुई सादगी हर किसी के गले नही उतर पाएगी, जरूरत है कि खामोश दरिया में इसके उतर जाया जाए जमीं तलक और इसके तल को छुआ जाए... महसूस किया जाए इसके भीतर की नमी को तो इस सादेपन पर कागजों के शब्दों का एक सेतु दिखेगा अनन्त सा खुद में एक काफिला लिए मशालों का जो पहुंचता हो दूर तलक घने अँधेरों को चीरते हुए लमहात के छोटे छोटे पड़ावों को हमारी जिंदगी के आईनों पर शक्ल दिखाती हुई। 4 दिसम्बर 2018 Copyright@ 'अनपढ़'

तुमको छोड़ दिया गया...

उस दहलीज पर उम्र की तुम मासूमियत की पनाह में थी आज भी हो तुम तो, कोख में पल रही एक तबस्सुम और तुम चली आयी वहां से! या तुम्हे समझकर जाल मकड़ी का घर की बैठक के किसी कोने में साफ कर दिया झाड़ू से! झूठ था, फ़रेब था, अंधेरा था उदास था, वीरान था सफर लेकिन तुम... बांटती रही हंसी अपने आँचल को कइयों गुना हवा में फैलाकर बहुत ही बदरंग सहारों की आड़ में; न जाने कौन सी याद है तुम्हे जिसको रखकर चुपके से अपने सिरहाने तुम अधेड़ हो गयी हो हंसते-खेलते। घास के बोझ कमर तोड़ते हुए जिनमे सारी ख्वाहिशों को अपनी रखा है तुमने काटकर; लंबी धधकती दोपहरियां और यादों में खोयी हुई आंखें तुम्हारी वक़्त के साथ उम्र को सरका देती हैं थोड़ा आगे, फिर कोई खयाल छूता हैं तुम्हें और तुम चल पड़ती हो हड़बड़ाहट में... कुछ यूं ही बीत रही है हर शाम और सुबह हर एक दिन और रात और सभी की तरह चल रही हो तुम भी। 11-20 दिसंबर 2018 Copyright @ 'अनपढ़'

जकड़न...

किसी भी जंजीर में न जकड़ा रहे दिल, तो तनहा-तनहा क्यों हर पल किसके पास रखा है दिया ले आओ उसे फिर क्या मुश्किल। 11 दिसंबर 2018 'अनपढ़'

क्या इस बीच...?

नज़र नही आता एक कतरा भी रौशनी का कि मैने जान के खुद को बाँधा या मैं बंधता चला गया, लेकिन बहुत वक़्त तक भटकाव ने चोटिल किया फैली हुई जमीन जो कि दिल और दिमाग के बीच है वहीं पर। इस बीच जुड़ना, टूटना फिर से जुड़ना, फिर से टूट जाना और मुड़ जाना बीच में ऐसे रास्तों की तरफ जो कभी यकीनन कहीं पहुंचते नहीं हैं। आज बेहद गुम होकर बैठता हूँ अपने पास और सोचता हूँ कि बेहद पसरी हुई जमीन पर जहां टूटना, बिखरना, जुड़ना सभी मौसमों के अलग-अलग खेतों को एक पतली धार से पानी देने के बराबर था। क्या इस बीच प्रेम भी अंकुरित हुआ कहीं, कभी भी? या फिर किसी अगले पायदान में है सफर के या वीरान फैली हुई जमीन पर छोटे-छोटे पेड़ पौधों की परछाई में पला-बढ़ा; जिसको कभी ध्यान में नही लाया गया लगता तो है कि अगर रहा होगा तो ऐसे ही कुछ, कुछ इसी शक्ल का। अब इसके बाद की जो जमीन है उसमें छोटे-छोटे पौधों, दरख्तों की छांव को लेकर चलना पड़ेगा अपनी आंखों में समाकर कहीं। 10 दिसंबर 2018 Copyright @ 'अनपढ़'

दर्द...

जितनी भी ताकत है तुम्हारे अंदर उसे लेकर आओ और उसका खंजर बनाकर झोंक दो अपनी तमाम ताकत मेरे अस्तित्व को छलनी करने में, मैं अपनी प्रतिक्रिया पर खामोशी को ओढ़े हुए रहूंगा और सहता रहूंगा तुम्हारे हर वार को। मैं लापरवाह इतना तो नही लेकिन बेखौफ जरूर हूँ क्योंकि मुझे मालूम है कि तुम्हारी ताकत मेरी हिम्मत को नही हरा सकती। जितनी बेरहमी से बाज झपटता है एक अधजली लाश पर और उसे नोचने लगता है ठीक उसी तरह तुम भी आओ और कोशिश करो मुझे नोचने की अंदर से, हालांकि मैं वाकिफ हूँ कि इतनी ताकत नही है तुम्हारे अंदर। तुमने इतनी शिद्दत से मुझे मारना चाहा कि अब मुझे मोह्हब्बत सी हो गयी है तुमसे, और तुम्हारे होने से मुझे एहसास होता है कि मैं जिंदा हूँ। 24 नवम्बर 2018 Copyright@ 'अनपढ़'

मत दोहराओ उसी बात को हर बार...

कि मैं नहीं हूँ, कहीं भी तो नही हूँ अब हाँ कि तुम हो उथल-पुथल रख देते हो उधेड़कर हर एक सिली हुई चीज को और मैं गुम हो जाता हूँ खामोशी के निर्मम अंधेरों में। बहुत गहरी उम्मीदें रही एक लंबे अरसे की, कुछ न कुछ दब जाता था मन में कैसे दीवार पर लटकी हुई तस्वीर गिर गयी जमीन पर कहीं से कुछ रौशनी नजर नही आई और वक़्त बीत गया, खुद में घटनाओं को विलीन करते हुए; तुम्हारा कुछ भी तो नही है सब कुछ रखा है सिर्फ मैंने संभाल के, ये प्रेम सिर्फ मेरा है भावनाओं के झूलते दरख़्त के हर एक उड़ते हुए पत्ते पर सिर्फ मेरा हक़ है, काश तुम चल लिए होते थोड़ा भी मेरी तरफ। मत दोहराओ तुम उसी बात को हर बार कि दिल दुखता है; मैं झूठ था लेकिन झूठ नही हो सकता और सिर्फ यही सच है। 16 दिसंबर 2018 Copyright @ 'अनपढ़'

सफर में हर रोज

हर इंसान हर रोज किसी न किसी सफर में है। जद्दोजहद है कसक है उलझन है, सुलझन भी है ठहराव है, हरकत भी है सलीखा है, बेखुदी भी है उम्मीद भी है पहुंचने की कहीं न कहीं पहुंचे या नही क्या पता पर हर इंसान हर रोज किसी न किसी सफर में हैं। 12 दिसंबर 2018 Copyright @ 'अनपढ़'

हाँ! झाँकना सही था।

कि बीतकर नमी से जेहन की, मिलती हुई तुमसे साझा करती हुई हर खामोश गुफ़्तगू सभी चुभते, बिलखते खयालों को निचोड़ दिया और तुम उठ गए और जा मिले खुद से; तभी तो, अपने भीतर झाँकना सही था। एक बासी वेदना लंबे सफर से कई छोटे-बड़े पड़ावों को साथ लिए किसी हिस्से में पड़ी हुई शरीर के, सोई हुई कहीं गहरी नींद में, मृत सी प्रतीत होती हुई ठीक ऐसे ही जैसे झूठ को काटकर लगा दिया हो ढ़ेर बहुत ऊँचा बेवजह सा कि खलिश रहती है रुलाती है, भटकाती है चीखने-चिल्लाने को करती है बेबस तोड़कर रख देती है बेहद महीन टुकड़ों में और खींचकर बालों को झकझोर देती है, ऐसे में झाँकना सही था। बहुत सा जो लगता हो सच दिलों को भिगोता हो तरबतर सुकून की बारिशों से एहसास, सहलाने का ठहराव से उससे मिला और साथ चला उंगलियाँ पकड़कर उसकी हाँ, झाँकना सही था। 11 दिसम्बर 2018 Copyright @ 'अनपढ़'

बेख़बर होके...

बेख़बर होके देखता हूँ कि मुझे कितनी खबर रहती है, अब तो अपनी ही तलाश मुझे दरबदर रहती है। खुद के पास बैठ के जाना कि मैं कौन हूं, कैसा हूँ, ख़्वाहिश अपने नए पहलू की मुझे अब हर सफर रहती है। हर तरफ फैली है बस रहबरों की नासाज़ आबो-हवा, हाँ सूरज वहीं से निकले ये उम्मीद हर सहर रहती है। मैं हूँ या तुम हो या कोई भी इंसान दुनिया का, अगर आम हो तो जिंदगी अक्सर कहर रहती है। दिलों की नादानियों से उठ के रूह की छुअन में, उसकी नमी को महसूस करो तो खुद की खबर रहती है। हर एक गली में ढूंढा, हर एक कोने में दुनिया के, देखा जो बंद निगाहों से 'अनपढ़' वो तो मेरे ही शहर रहती है। 10 दिसंबर 2018 Copyright @ 'अनपढ़'

साँस के टुकड़े...

काले निराश धब्बे टहलते हुए उदास चाल की जकड़ में, डरावने चेहरों के बादलों की तरह फैलते हैं जिंदगी की टूटी हुई ऊबड़-खाबड़ सड़कों पर; एक बड़ी सफेद रुआँसी दीवार पर काला एक धब्बा हताश सा दिखता है बेरंग जिन्दगियों को ढालता हुआ अनगिनत रंगों की एक महकती तस्वीर में। कटोरा भर खून लिए काँपते हुए हाथों में मुर्दों की खामोश आवाजें हमारी जुबान पर रखती हैं धधकते हुए अंगारे और लंबे नाखूनों से मुँह में हाथ डालकर नोच लेती हैं दिल धड़कता हुआ। ये बहुत गहरा नीला रंग कहीं और से दिखता है मासूम आंखें आ जाती हैं धोखों की गिरफ्त में। और ये टपकता हुआ लहू माथे की धुंधली लकीरों से उतरता है एक दरिया में और हमारी महक में निचोड़ देता है दुर्गन्ध नुकीले काँटों जैसा। हर तरफ से कोई आये या हम हर तरफ जाएं इसी सिलसिले की दलदल में गहरा फंसा है आदमी आंखें खुली हैं कि गुम हो जाएंगी नजरें कभी। एक कि जो शायद में है डूबा हुआ पूरी तरह कहीं से न दिखती हुई रस्सियों से उछालता है और खेल खिलाता है और हमारी सांस के टुकड़े इनमें फंसे हैं कहीं। 05 दिसंबर 2018 Copyright @ 'अनपढ़'

उलझ के...

उलझ के, तड़प के, लड़खड़ा के पर उठो तो सही अब 'अनपढ़' एक ग़ज़ल सुनाता है तुम सुनो तो सही। माना कि हर लम्हा मैं गुम रहता हूँ सिर्फ खुद में अरे तुम तो होश में हो, मुझसे कुछ कहो तो सही। ये मोह्हब्बत क्या बला है, मुझे जानने की ख़्वाहिश है तुम अपने लब्जों पे पंख लगा के मेरी तरफ उड़ो तो सही। उतरती है मेरे जेहन में हवा, चारों तरफ से बहकर अपनी निगाहों से उठाकर तूफान, मेरी तरफ बहो तो सही। नींदों में बहुत बड़बड़ा लिया, ख्वाबों की जमीं पर तुम हकीकत में हर सुबह, मेरे साथ जगो तो सही। मैं वाकिफ़ हूँ टिहरी के हर एक दिलफ़रेब जंगल से ये बहुत उम्दा सफर है, तुम मेरे साथ चलो तो सही। 06 दिसंबर 2018 Copyright @ 'अनपढ़'

घड़ियाँ...

इस कमरे की हर एक दीवार पर लटका दूं घड़ियाँ बहुत सारी और हर घड़ी एक अलग वक्त बयां करे। मीनार-ए-ख्वाहिश के एक छोटे से कमरे को बता रहा हूँ मैं; मेरा जागना मेरा सोना देर रात के सन्नाटे में खामोश कदमों से जाकर रसोई में एक चाय तैयार करना (कि खिड़की से ताकता हूँ मैं अंधेरे के सायों को भी) चाय की धीमी घूंटों के साथ सन्नाटे को महसूस करना और फिर लेकर सादा कागज और कलम बैठ जाना कुर्सी पर- और हर एक काम जो कि एक तय दिन में दोहराता हूँ मैं उसके लिए दीवार पर टंगी हर एक घड़ी की तरफ नजरें गड़ा के देखूँ काफी देर तक और ये महसूस करने में खुद को झोंक दूं कि सिमटते वक्त के कदमों के नीचे की धूल को कितना बटोर पाता हूँ अपनी मुट्ठी में। क्या ऐसा करने से ये मुमकिन होगा कि अपनी सभी अनुभूतियों को समय के एक फलक पर देख पाऊँ मैं। ये तो तय है कि दीवार पर टंगी तमाम घड़ियाँ दुनिया में सभी लोगों के लिए समान रूप से सफर करेंगी अपनी धुरियों पर; लेकिन जिस तरह मैं महसूस करता हूँ अपनी धड़कनों को क्या किसी घड़ी की टिक-टिक मेरी धड़कनों को गले लगाकर पूछेंगी उनका हाल? मैने पाया कि अपनी सहूलियत

चढ़ाई...

उसने वेदना के भीतरी स्वरों को महसूस करते हुए वो जो बहते हैं तुम्हारी आँखों की गहराइयों से और गिरकर जमीन पर पसीने की बेरंग शक्ल में खुशबू पैदा करती है मिट्टी में, अपना हाथ बढ़ाया और कहा कि पैर रखो मेरे पहलुओं पर और पार कर दो मुझे; पराल का इतना बड़ा बोझ कि आते हैं प्रतिरोध तुम्हारी फैलती नजर के सामने और तुम देख पा रहे हो सिर्फ अपने बढ़ते कदम के नीचे की जमीन। अपना सारा बोझ उतारकर किसी बिसूण में टपकता पसीना तुम्हारी गात का एक गुफ़्तगू कर पायेगा उस हवा से जो बहती है एक सरसराहट को साथ लिए हुए पीपल के पत्तों से गहरी सांस की घूंटों को हलक से उतारते हुए; वो भी हमदर्दी के मरहमों को लिए हुए साथ अपने आसपास रहेगा तुम्हारे। चला आ रहा है अरसों से पीढ़ियों की अनुभूति को अपनी हथेलियों में छुपाकर तुम्हारे बोझ के साथ ये रिवाज़ परम्पराओं को ढ़ोने का जो कि दे रहा है तुम्हे दो वक्त की रोटी सुकून के चूल्हे में पकाई हुई और वक्त के साथ दौड़ में जिंदगी की तुम चलते हो बेखौफ होकर। (पराल - धान के पौधे से दाने निकालने के बाद बची हुई घास, बिसूण - बोझ को उतारकर आराम करने की जगह) 23