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Showing posts from December, 2018

वक़्त की तरह नहीं...

एक जमीन अगर होता वक़्त एक रास्ता सा, तो हम चलकर कुछ दूर गिरते-पड़ते, भटकते हुए से कहीं पर, किसी जगह से वापस लौटकर आ सकते। अगर आसमान होता ये वक़्त तो हम ये जानते होते कि अगर नही हों ब...

अकेलापन...

अकेलेपन को उड़ेलते हुए चाहती है ये कलम जी जान से कि, यूं ही लगता रहे ढ़ेर सादे कागजों का एक विशालकाय पहाड़ की तरह; जिसकी गहनाती हुई सादगी हर किसी के गले नही उतर पाएगी, जरूरत है कि ...

तुमको छोड़ दिया गया...

उस दहलीज पर उम्र की तुम मासूमियत की पनाह में थी आज भी हो तुम तो, कोख में पल रही एक तबस्सुम और तुम चली आयी वहां से! या तुम्हे समझकर जाल मकड़ी का घर की बैठक के किसी कोने में साफ कर दि...

जकड़न...

किसी भी जंजीर में न जकड़ा रहे दिल, तो तनहा-तनहा क्यों हर पल किसके पास रखा है दिया ले आओ उसे फिर क्या मुश्किल। 11 दिसंबर 2018 'अनपढ़'

क्या इस बीच...?

नज़र नही आता एक कतरा भी रौशनी का कि मैने जान के खुद को बाँधा या मैं बंधता चला गया, लेकिन बहुत वक़्त तक भटकाव ने चोटिल किया फैली हुई जमीन जो कि दिल और दिमाग के बीच है वहीं पर। इस बी...

दर्द...

जितनी भी ताकत है तुम्हारे अंदर उसे लेकर आओ और उसका खंजर बनाकर झोंक दो अपनी तमाम ताकत मेरे अस्तित्व को छलनी करने में, मैं अपनी प्रतिक्रिया पर खामोशी को ओढ़े हुए रहूंगा और सह...

मत दोहराओ उसी बात को हर बार...

कि मैं नहीं हूँ, कहीं भी तो नही हूँ अब हाँ कि तुम हो उथल-पुथल रख देते हो उधेड़कर हर एक सिली हुई चीज को और मैं गुम हो जाता हूँ खामोशी के निर्मम अंधेरों में। बहुत गहरी उम्मीदें रही ...

सफर में हर रोज

हर इंसान हर रोज किसी न किसी सफर में है। जद्दोजहद है कसक है उलझन है, सुलझन भी है ठहराव है, हरकत भी है सलीखा है, बेखुदी भी है उम्मीद भी है पहुंचने की कहीं न कहीं पहुंचे या नही क्या ...

हाँ! झाँकना सही था।

कि बीतकर नमी से जेहन की, मिलती हुई तुमसे साझा करती हुई हर खामोश गुफ़्तगू सभी चुभते, बिलखते खयालों को निचोड़ दिया और तुम उठ गए और जा मिले खुद से; तभी तो, अपने भीतर झाँकना सही था। ए...

बेख़बर होके...

बेख़बर होके देखता हूँ कि मुझे कितनी खबर रहती है, अब तो अपनी ही तलाश मुझे दरबदर रहती है। खुद के पास बैठ के जाना कि मैं कौन हूं, कैसा हूँ, ख़्वाहिश अपने नए पहलू की मुझे अब हर सफर रहती ...

साँस के टुकड़े...

काले निराश धब्बे टहलते हुए उदास चाल की जकड़ में, डरावने चेहरों के बादलों की तरह फैलते हैं जिंदगी की टूटी हुई ऊबड़-खाबड़ सड़कों पर; एक बड़ी सफेद रुआँसी दीवार पर काला एक धब्बा हताश ...

उलझ के...

उलझ के, तड़प के, लड़खड़ा के पर उठो तो सही अब 'अनपढ़' एक ग़ज़ल सुनाता है तुम सुनो तो सही। माना कि हर लम्हा मैं गुम रहता हूँ सिर्फ खुद में अरे तुम तो होश में हो, मुझसे कुछ कहो तो सही। ये मोह्...

घड़ियाँ...

इस कमरे की हर एक दीवार पर लटका दूं घड़ियाँ बहुत सारी और हर घड़ी एक अलग वक्त बयां करे। मीनार-ए-ख्वाहिश के एक छोटे से कमरे को बता रहा हूँ मैं; मेरा जागना मेरा सोना देर रात के सन्ना...

चढ़ाई...

उसने वेदना के भीतरी स्वरों को महसूस करते हुए वो जो बहते हैं तुम्हारी आँखों की गहराइयों से और गिरकर जमीन पर पसीने की बेरंग शक्ल में खुशबू पैदा करती है मिट्टी में, अपना हाथ ब...