लटकी हुई हैं आँखे भटकती हैं चौराहे पर पीठ में लटकाकर एक झोला बड़ा सा जिसमें लोकतंत्र हो सकता है संविधान हो सकता है धर्म हो सकता है पूजा हो सकती है, इबादतें हो सकती हैं, खाक हुई इंसानियत की राख हो सकती है मारे गए परिन्दों के पर हो सकते हैं कोयल की नोची हुई जुबान हो सकती है या हो सकता है हमारी चेतना की लड़खड़ाती जुबान हो; वो कोशिश में है किसी दिशा की तरफ जाने की खुद को धक्का देकर सरकाने की कि इतने में किलकिलाहट, चीखती चिल्लाती गाड़ियां आंखों में चुभती हुई धूल धकेलती है पीछे बहुत दूर कर देती है। वो भूख से बिलखता हुआ बच्चा उसके फटे हुए कपड़े उसकी फटती हुई त्वचा धूल से मिट्टी हो चुके बाल सभी कुछ उधर से एक आंधी शुरू करते हैं जिसमे वे सब लोग हैं जो फुटपाथ पर अपनी हथेलियों की तरफ देख रहे हैं जिनपे जलने से फफोले उठे हुए हैं और कुछ फूट भी रहे हैं; आंखों में खून दौड़ रहा है सरकारें बू मार रही हैं रीढ़ की हड्डी तोड़ रहे हैं संविधान की, आतिशबाजी करते फिरते हैं, लोकतंत्र के बिखरे हुए कागजों को जलाकर भट्टी में आग सेक रहे हैं राजनीति के नुमाइंदे और लोकतंत्र के सर पर न
Poet, Literary Translator, Assistant Professor, He comes from a small Garhwal Himalayan village Jakholi in Tehri Garhwal district of Uttarakhand, India. He writes poems in Hindi, English and Garhwali. He is the pioneer translator of prominent contemporary singer and poet of Garhwal Mr. Narendra Singh Negi. He earned his PhD in Poetic Philosophy from HNBGU Central University Srinagar. So far he has authored "A Stream of Himalayan Melody", "Pages of my college Diary" and "Waqt ki peeth par".