उसने वेदना के
भीतरी स्वरों को महसूस करते हुए
वो जो बहते हैं
तुम्हारी आँखों की गहराइयों से
और गिरकर जमीन पर
पसीने की बेरंग शक्ल में
खुशबू पैदा करती है मिट्टी में,
अपना हाथ बढ़ाया
और कहा कि
पैर रखो मेरे पहलुओं पर
और पार कर दो मुझे;
पराल का इतना बड़ा बोझ
कि आते हैं प्रतिरोध
तुम्हारी फैलती नजर के सामने
और तुम देख पा रहे हो सिर्फ
अपने बढ़ते कदम के
नीचे की जमीन।
अपना सारा बोझ
उतारकर किसी बिसूण में
टपकता पसीना तुम्हारी गात का
एक गुफ़्तगू कर पायेगा
उस हवा से जो बहती है
एक सरसराहट को साथ लिए हुए
पीपल के पत्तों से
गहरी सांस की घूंटों को
हलक से उतारते हुए;
वो भी हमदर्दी के मरहमों को
लिए हुए साथ अपने
आसपास रहेगा तुम्हारे।
चला आ रहा है
अरसों से पीढ़ियों की अनुभूति को
अपनी हथेलियों में छुपाकर
तुम्हारे बोझ के साथ
ये रिवाज़
परम्पराओं को ढ़ोने का
जो कि दे रहा है तुम्हे
दो वक्त की रोटी
सुकून के चूल्हे में पकाई हुई
और वक्त के साथ
दौड़ में जिंदगी की
तुम चलते हो बेखौफ होकर।
(पराल - धान के पौधे से दाने निकालने के बाद बची हुई घास, बिसूण - बोझ को उतारकर आराम करने की जगह)
23 नवम्बर 2018
Copyright @
'अनपढ़'
Comments
Post a Comment
Dr. Deepak Bijalwan
Poet, Translator