अकेलेपन को
उड़ेलते हुए
चाहती है ये कलम
जी जान से कि,
यूं ही लगता रहे ढ़ेर
सादे कागजों का
एक विशालकाय पहाड़ की तरह;
जिसकी गहनाती हुई सादगी
हर किसी के गले नही उतर पाएगी,
जरूरत है कि
खामोश दरिया में इसके
उतर जाया जाए जमीं तलक
और इसके तल को छुआ जाए...
महसूस किया जाए
इसके भीतर की नमी को
तो इस सादेपन पर कागजों के
शब्दों का एक सेतु दिखेगा
अनन्त सा
खुद में एक काफिला लिए
मशालों का
जो पहुंचता हो दूर तलक
घने अँधेरों को चीरते हुए
लमहात के छोटे छोटे
पड़ावों को
हमारी जिंदगी के आईनों पर
शक्ल दिखाती हुई।
4 दिसम्बर 2018
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'अनपढ़'
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Dr. Deepak Bijalwan
Poet, Translator