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वजह

(पर्दों के सरकते ही रंगमंच पर मानवीय सभ्यता अपनी नजरें दौड़ाने लगती है) और हम ये सब महसूस कर पा रहे हैं देख पा रहे हैं; हमारे चारों ओर जितनी भी हवाएँ, जितने भी बवंडर पैदा होते हैं लम्हों को सीने से लगाये हुए हमें मालूम हो पड़ता है कि ये किसी 'वजह' की आगोश में हैं खामोशी के लिबास को पहने हुए छितराये हुए चेहरों के ऊपर डरी हुयी आंखें बताती हैं कि कुछ होने के बाद न जाने कितना कुछ बदलने की राह पर है। एकाएक किसी ऐसे खँडहर में सहमी हुई पूरी सभ्यता भाषा का उपयोग करना या तो भूल चुकी है या हर पल बढ़ती हुई महामारी के अंधकार से भाषा को अभिव्यक्त करने की कला आत्मचिंतन में है! कि ये क्या हो रहा है? उधर परिंदे वो सब देख पा रहे हैं जिन्हें न देख पाने की वजह से वे खुद भी विलुप्त हो गए थे। 31 मार्च 2020