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Showing posts with the label उलझन

टूटे हुए कतरों को सिलता हूँ।

इस पुराने उधड़े हुए फटे और चोटिल कोट को जिस तरह सिलता हूँ मैं, ठीक वैसे ही जो कुछ भी टूटा है या प्रतीत सा होता है मेरे अंदर कहीं, सिलता हूँ उसको इसी तरह। सुई जब चलती है धागे का बो...

बिखरा है।

कि अंदर का वो शख्स कुछ उलझा हुआ सा है, जरूरत क्या है उसको बस बहका हुआ सा है। परदे बेशुमार डाले हैं झूट के बाहर से काले रंग के, अंदर कई बार नंगा नजर आता है सहमा हुआ सा है | बस साँसों ...