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घड़ियाँ...

इस कमरे की
हर एक दीवार पर
लटका दूं घड़ियाँ
बहुत सारी और हर घड़ी
एक अलग वक्त बयां करे।
मीनार-ए-ख्वाहिश के
एक छोटे से कमरे को
बता रहा हूँ मैं;
मेरा जागना
मेरा सोना
देर रात के सन्नाटे में
खामोश कदमों से
जाकर रसोई में
एक चाय तैयार करना
(कि खिड़की से ताकता हूँ मैं
अंधेरे के सायों को भी)
चाय की धीमी घूंटों के साथ
सन्नाटे को महसूस करना
और फिर लेकर
सादा कागज और कलम
बैठ जाना कुर्सी पर-
और हर एक काम
जो कि एक तय दिन में
दोहराता हूँ मैं
उसके लिए
दीवार पर टंगी हर एक घड़ी की तरफ
नजरें गड़ा के देखूँ काफी देर तक
और ये महसूस करने में खुद को झोंक दूं
कि सिमटते वक्त के
कदमों के नीचे की धूल को
कितना बटोर पाता हूँ
अपनी मुट्ठी में।

क्या ऐसा करने से
ये मुमकिन होगा कि
अपनी सभी अनुभूतियों को
समय के एक फलक पर
देख पाऊँ मैं।

ये तो तय है कि
दीवार पर टंगी तमाम घड़ियाँ
दुनिया में सभी लोगों के लिए
समान रूप से सफर करेंगी अपनी धुरियों पर;
लेकिन
जिस तरह मैं महसूस करता हूँ
अपनी धड़कनों को
क्या किसी घड़ी की टिक-टिक
मेरी धड़कनों को गले लगाकर
पूछेंगी उनका हाल?

मैने पाया कि
अपनी सहूलियत के हिसाब से
इंसान ने
बांटा है वक्त को
सालों में, महीनों में, हफ्तों में, दिनों में, वारों में
और छोटे-छोटे बहुत से टुकड़ों में;
जबकि ऐसा नही है
यह तो अनवरत
चल रहा है
एक बहती नदी की तरह
अपने तमाम स्वभावों को साथ लेकर
जो बस शुरू से एक नदी है
और जिसको महज बहना है
दिन और रात भी
सिर्फ पहलू हैं इसके।

अभी ये जो
तमाम घड़ियाँ लटकी हुई हैं
दीवारों पर
ये देख रही हैं एकटक
सिर्फ मेरी तरफ
बगैर पुतलियों को झपकाए
हर कहीं से
और अपनी सुइयों की
टिक-टिक आवाजों के साथ
खींच रही हैं मुझे मेरी गर्दन पकड़कर
अपनी ओर
जैसे कि
निघलने वाली हैं मुझे
कहीं ये सभी घड़ियाँ
एक भयानक नरसिंह का जबड़ा बनकर
मेरी तरफ न आ जाएं!!
ये आ रहा है!

26 नवम्बर 2018
Copyright @
'अनपढ़'

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Dr. Deepak Bijalwan
Poet, Translator

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