नज़र नही आता
एक कतरा भी रौशनी का
कि मैने जान के खुद को बाँधा
या मैं बंधता चला गया,
लेकिन बहुत वक़्त तक
भटकाव ने चोटिल किया
फैली हुई जमीन जो कि
दिल और दिमाग के बीच है
वहीं पर।
इस बीच
जुड़ना, टूटना
फिर से जुड़ना, फिर से टूट जाना और
मुड़ जाना बीच में
ऐसे रास्तों की तरफ
जो कभी यकीनन
कहीं पहुंचते नहीं हैं।
आज बेहद गुम होकर
बैठता हूँ अपने पास और
सोचता हूँ कि
बेहद पसरी हुई जमीन पर
जहां टूटना, बिखरना, जुड़ना
सभी मौसमों के
अलग-अलग खेतों को
एक पतली धार से
पानी देने के बराबर था।
क्या इस बीच
प्रेम भी अंकुरित हुआ कहीं, कभी भी?
या फिर
किसी अगले पायदान में है
सफर के
या वीरान फैली हुई जमीन पर
छोटे-छोटे पेड़ पौधों की
परछाई में पला-बढ़ा;
जिसको कभी ध्यान में नही लाया गया
लगता तो है कि अगर
रहा होगा तो
ऐसे ही कुछ, कुछ इसी शक्ल का।
अब इसके बाद की जो जमीन है
उसमें छोटे-छोटे पौधों,
दरख्तों की छांव को
लेकर चलना पड़ेगा
अपनी आंखों में समाकर कहीं।
10 दिसंबर 2018
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'अनपढ़'
Bahut sundar
ReplyDeleteGreat sir
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