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Showing posts with the label लोकतंत्र

कराह

तुम्हारी उम्रों के पैर थके हुए नजर आते हैं कि वो चल रही हैं सफर अपना, और बहुत लाज़मी भी है बातों का उसी तरह घटित होना जैसा कि उनको होना है तुम्हारे वहाँ होने से जहाँ कि तुम हो भल...

गज़ल

खड़े हो बिजूके से.. क्यों कोई रंग नहीं दिखता? उदास शामों के साये में वो बेरंग नहीं दिखता। हां कि उतरकर पैमानों से परे अबकी हो जाएं कि फिज़ा-ए-आज में जमाने की बीता रंग नहीं दिखता। ...

लोकतंत्र के सर पर।

लटकी हुई हैं आँखे भटकती हैं चौराहे पर पीठ में लटकाकर एक झोला बड़ा सा जिसमें लोकतंत्र हो सकता है संविधान हो सकता है धर्म हो सकता है पूजा हो सकती है, इबादतें हो सकती हैं, खाक हुई ...