कि मैं नहीं हूँ,
कहीं भी तो नही हूँ अब
हाँ कि तुम हो उथल-पुथल
रख देते हो उधेड़कर
हर एक सिली हुई चीज को और
मैं गुम हो जाता हूँ
खामोशी के निर्मम अंधेरों में।
बहुत गहरी उम्मीदें रही
एक लंबे अरसे की,
कुछ न कुछ
दब जाता था मन में
कैसे दीवार पर लटकी हुई तस्वीर
गिर गयी जमीन पर
कहीं से कुछ रौशनी
नजर नही आई और
वक़्त बीत गया, खुद में
घटनाओं को विलीन करते हुए;
तुम्हारा कुछ भी तो नही है
सब कुछ रखा है सिर्फ
मैंने संभाल के,
ये प्रेम सिर्फ मेरा है
भावनाओं के झूलते दरख़्त के
हर एक उड़ते हुए पत्ते पर
सिर्फ मेरा हक़ है,
काश तुम चल लिए होते
थोड़ा भी मेरी तरफ।
मत दोहराओ तुम
उसी बात को हर बार
कि दिल दुखता है;
मैं झूठ था लेकिन
झूठ नही हो सकता
और सिर्फ यही सच है।
16 दिसंबर 2018
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'अनपढ़'
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Dr. Deepak Bijalwan
Poet, Translator