एक जमीन अगर होता वक़्त
एक रास्ता सा,
तो हम चलकर कुछ दूर
गिरते-पड़ते, भटकते हुए से
कहीं पर, किसी जगह से
वापस लौटकर आ सकते।
अगर आसमान होता ये वक़्त
तो हम ये जानते होते
कि अगर नही हों बादल
तो ये नीला होगा
इसमें सूरज रहेगा
चाँद तारों से मिल पाएंगे
कई रंगों के बादल दिखते
और हम इंतजार में रहते
कि कल फिर नीले परदे पर
सभी तस्वीरें नज़र आएंगी।
अगर मेरी मेज पर रखी हुई
सारी चीजों के जैसा होता ये वक़्त
तो जिस भी चीज को
जब चाहे उठाकर दूसरी जगह रख पाता;
हालाँकि मैने किसी को नही रखा
इस तरह कभी भी,
ये पहले से अपनी तय जगह पर हैं
जिसको शुरू में बाँध दिया था...
और मेरी नजरें ढूंढा करती हैं उनको
उसी जगह पर;
सरस्वती की छोटी प्रतिमा,
दो मोमबत्तियां, लैपटॉप, कलमदान
कुछ किताबें, मेज के ऊपर टैगोर की तस्वीर
छोटे-छोटे दो गमले
जिनमे काफी वक्त से मैं
फूलों को उगाने की कोशिश में हूं,
ये सभी चीजें मेरे साथ
उठती-बैठती हैं, बातें करती हैं
वक़्त की तरह नही।
25 दिसंबर 2018
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'अनपढ़'
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Dr. Deepak Bijalwan
Poet, Translator