काले निराश धब्बे
टहलते हुए
उदास चाल की जकड़ में,
डरावने चेहरों के बादलों की तरह
फैलते हैं
जिंदगी की टूटी हुई
ऊबड़-खाबड़ सड़कों पर;
एक बड़ी सफेद रुआँसी दीवार पर
काला एक धब्बा
हताश सा दिखता है
बेरंग जिन्दगियों को
ढालता हुआ
अनगिनत रंगों की
एक महकती तस्वीर में।
कटोरा भर खून लिए
काँपते हुए हाथों में
मुर्दों की खामोश आवाजें
हमारी जुबान पर
रखती हैं
धधकते हुए अंगारे
और लंबे नाखूनों से
मुँह में हाथ डालकर
नोच लेती हैं दिल
धड़कता हुआ।
ये बहुत गहरा नीला रंग
कहीं और से दिखता है
मासूम आंखें
आ जाती हैं
धोखों की गिरफ्त में।
और ये टपकता हुआ लहू
माथे की धुंधली लकीरों से
उतरता है एक दरिया में
और हमारी महक में
निचोड़ देता है दुर्गन्ध
नुकीले काँटों जैसा।
हर तरफ से कोई आये
या हम हर तरफ जाएं
इसी सिलसिले की दलदल में
गहरा फंसा है आदमी
आंखें खुली हैं
कि गुम हो जाएंगी
नजरें कभी।
एक कि जो शायद में है
डूबा हुआ पूरी तरह
कहीं से
न दिखती हुई रस्सियों से
उछालता है और खेल खिलाता है
और हमारी सांस के टुकड़े
इनमें फंसे हैं कहीं।
05 दिसंबर 2018
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'अनपढ़'
Wah.. umda sir
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