कि बीतकर नमी से
जेहन की, मिलती हुई तुमसे
साझा करती हुई
हर खामोश गुफ़्तगू
सभी चुभते, बिलखते खयालों को
निचोड़ दिया और
तुम उठ गए
और जा मिले खुद से;
तभी तो, अपने भीतर
झाँकना सही था।
एक बासी वेदना
लंबे सफर से
कई छोटे-बड़े पड़ावों को साथ लिए
किसी हिस्से में पड़ी हुई
शरीर के, सोई हुई
कहीं गहरी नींद में,
मृत सी प्रतीत होती हुई
ठीक ऐसे ही जैसे
झूठ को काटकर
लगा दिया हो ढ़ेर बहुत ऊँचा बेवजह सा
कि खलिश रहती है
रुलाती है, भटकाती है
चीखने-चिल्लाने को करती है बेबस
तोड़कर रख देती है
बेहद महीन टुकड़ों में
और खींचकर बालों को
झकझोर देती है,
ऐसे में झाँकना सही था।
बहुत सा
जो लगता हो सच
दिलों को भिगोता हो
तरबतर सुकून की बारिशों से
एहसास, सहलाने का ठहराव से
उससे मिला और
साथ चला
उंगलियाँ पकड़कर उसकी
हाँ, झाँकना सही था।
11 दिसम्बर 2018
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'अनपढ़'
Great sit
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