उस दहलीज पर उम्र की
तुम मासूमियत की पनाह में थी
आज भी हो तुम तो,
कोख में पल रही
एक तबस्सुम और
तुम चली आयी वहां से!
या तुम्हे समझकर जाल मकड़ी का
घर की बैठक के किसी कोने में
साफ कर दिया झाड़ू से!
झूठ था, फ़रेब था, अंधेरा था
उदास था, वीरान था सफर
लेकिन तुम...
बांटती रही हंसी
अपने आँचल को
कइयों गुना हवा में फैलाकर
बहुत ही बदरंग सहारों की आड़ में;
न जाने कौन सी याद है तुम्हे
जिसको रखकर चुपके से अपने सिरहाने
तुम अधेड़ हो गयी हो
हंसते-खेलते।
घास के बोझ
कमर तोड़ते हुए
जिनमे सारी ख्वाहिशों को अपनी
रखा है तुमने काटकर;
लंबी धधकती दोपहरियां और
यादों में
खोयी हुई आंखें तुम्हारी
वक़्त के साथ
उम्र को सरका देती हैं थोड़ा आगे,
फिर कोई खयाल
छूता हैं तुम्हें और
तुम चल पड़ती हो
हड़बड़ाहट में...
कुछ यूं ही बीत रही है
हर शाम और सुबह
हर एक दिन और रात
और सभी की तरह
चल रही हो तुम भी।
11-20 दिसंबर 2018
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'अनपढ़'
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Dr. Deepak Bijalwan
Poet, Translator