बेख़बर होके देखता हूँ कि मुझे कितनी खबर रहती है,
अब तो अपनी ही तलाश मुझे दरबदर रहती है।
खुद के पास बैठ के जाना कि मैं कौन हूं, कैसा हूँ,
ख़्वाहिश अपने नए पहलू की मुझे अब हर सफर रहती है।
हर तरफ फैली है बस रहबरों की नासाज़ आबो-हवा,
हाँ सूरज वहीं से निकले ये उम्मीद हर सहर रहती है।
मैं हूँ या तुम हो या कोई भी इंसान दुनिया का,
अगर आम हो तो जिंदगी अक्सर कहर रहती है।
दिलों की नादानियों से उठ के रूह की छुअन में,
उसकी नमी को महसूस करो तो खुद की खबर रहती है।
हर एक गली में ढूंढा, हर एक कोने में दुनिया के,
देखा जो बंद निगाहों से 'अनपढ़' वो तो मेरे ही शहर रहती है।
10 दिसंबर 2018
Copyright @
'अनपढ़'
Bhot sundar
ReplyDelete