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Showing posts from November, 2018

सुंदरता...

कई सीढ़ियां उतरकर अपने दिव्य रूपों के साथ प्रकृति से तुमने फिर स्त्री में अपना घर ढूंढा। आंखों में एक अनन्त समुद्र होने के बाद जिसकी लहरें अपार ऊर्जा को पालती हैं अपनी गोद में थपकियों से, फिर तुम उसके होंठो को छूकर अहसास कराते हो पहाड़ के जंगलों में उम्दा बुराँसों का और ऐसे ही हजारों पुष्पों का और उनके नृत्य से बहते हुए ओंस की छुअन का। फिर चेहरे के हर पहलू में रौशनी को लेपने के बाद तुम बदन की सीढ़ियों से होकर दूधिया बादलों में घुलते हो जो उसके देहरूपी नभ पर बहते हैं। नजरों में हो तुम और हर चीज खूबसूरत दिखती है।                 - 'अनपढ़' 30 नवम्बर 2018

अभी तक...

अपने तय सफर को जो अभी तक गुजर गया मैं अपने भीतर झाँककर, जर्जर खिड़कियों से गुजारते हुए कतई खोयी सी नजरों को... मापता हूँ वही कि जो बीत गया। लम्हों की हर नई चीख से होता है प्रतीत सा बीतता सा लगता है बेजान चीजें बनी हैं ज्यों की त्यों कि हां जो बीत रहा है वही तो बीतता है।                  - 'अनपढ़'                    28 नवम्बर 2018

वक्त की झुर्रियां...

तुम उठाकर ले आओ उन्हें ले आओ इकट्ठा कर के जितना बटोर पाते हो वो जो लम्हे बिखरे हैं जगह-जगह और बेहोश पड़े हैं वहाँ इंसानों की शक्ल में जहाँ वे अनगिनत लोगों की ठोकरों से लहू लुहान हैं और उनके चीथड़े कंकड़ों के साथ नजर आते हैं कहीं; इतना मैं यह सोचता हूँ कि क्यों मैने खुद को उलझाया रखा उस जगह जहां मेरा दिल और दिमाग एक साथ नहीं था। मैं पहले कभी नही मिला तुमसे कोई धुँधली याद भी नही है मुझे, शायद एकाध बार कहीं हो  गयी हो मुलाक़ात, पर हां खुद से मिलने के लिए तय करना पड़ता है एक बहुत लंबा सफर। आज महसूस होता है देखकर आईने में कि उम्रें गुजर जाती हैं और चेहरों पर रह जाती हैं बस वक़्त की झुर्रियां। 21 नवम्बर 2018 Copyright @ 'अनपढ़'

सृजन...

चलते फिरते घर खयालों के और उनमें रात के किनारे पर गहरी नींद से जागकर अपनी आंखें मीचते हुए सृजन की नई सुबहें अपनी जिंदगी को तैयार हैं जीने के लिए कि जिनमें शब्दों के सूरज सादी धरती पर कागज के बोने वाले हैं लब्जों के बीज। 20 nov 2018 Copyright @ 'अनपढ़'

कुछ किताबें...

पोटली एक ख्वाबों की कहीं दफ़्न हुई इतिहास में, और उड़ गया वो हवा सा जो कुछ भी था मेरे एहसास में। कुछ लकीरें मिट गई हैं हाथ से मेरे कहीं सब खो गया जैसे कहीं अब है नही कुछ पास में। कुछ थे करीब दोस्त जो अब है नही उनका सहारा डूबती कश्ती से निकला अब ढूँढता हूँ मैं किनारा। कुछ किताबें खींचने मुझको लगी हैं गर्द से जिनका ढ़का चेहरा है मुरझा ताकत नही है, उठ के चला जाऊं कहीं मैं लगता है टूटा सा पड़ा है हिम्मत का पुर्जा। 29 जुलाई 2015 Copyright@ 'अनपढ़'

वो कुछ खयाल...

लड़खड़ाते सहारे बैशाखी के और उनको गले लगाकर चल रहे थे वो तमाम खयाल उलझनों के माथों को चूमते हुए जिनको खुद मैंने अपाहिज बनाया। जाने अनजाने अजनबी दास्तानों को साथ लेकर जेबों में किसी से जोड़ता रहा खुद में उमड़ते हुए अहसासों को और खुद को करता रहा बेखबर भी सभी बेनाम आवाजों से, आज उन सभी का मतलब कहीं तो जरूर होगा मगर दिखता नही। हाँ आज देखता हूँ तो कुछ नजर नही आता कहीं, जो साथ चलता है मेरे और वो कहीं खोये हुए जर्जर कोनों में अंतस के दबी हुई पहेलियों को सुलझाता है उसके बहुत पास हूँ तो महसूस होता है कि हर दिन भीगता है मेरा जेहन खुशनुमा जिंदगी की हंसी बारिशों में। कई दफे शक होता है आंसुओं पर कि न जाने कौन से आंसू कितने सही हैं, कोई दायरा भी तो नही है कि जान पायें हम। चलो कि सुन लेता हूँ कुछ देर मैं सिर्फ उसी को और मान भी लेता हूँ उसको तो फिर वो मुझसे है या उसका साया हूँ मैं। मैं जितना पास हूँ इन दरख्तों के तो लगता है कि साँस ओढ़े हुए है सुकून की चादर। 19 नवंबर 2018 कॉपीराइट@ 'अनपढ़'

O’ Lovely Friend of Mine

Are  you there? Do you really exist? O’ lovely friend of mine Talk to me Forlorn I am Atrocious you appear say people O’ lovely friend of mine I’ll sit next to you Dear ghost. You come Embrace me warmly O’ dear darkness Take me in your arms Talk to me Forlorn I am Dejection you are say people O’ lovely friend of mine Dear darkness. The hills Covered by darkness And intense midnight fog I welcome you The whole panorama O’ dear nature Talk to me Forlorn I am You make me believe in a big reality O’ my love Dear nature. Do not leave me alone O’ the loneliness of mine Talk to me Forlorn I am Have a cup of Lemon tea with me O’ lovely friend of mine Dear loneliness. Should I sack the bed? And desire for dreams Dreams of all light And gratification I am going to sleep O’ lovely friend of mine Dear dream. A Monologue July/24/2018 Copyright @ D.B. 'Anpadh'

CAGED BIRDS

Like you Not horrific, he looks Twenty one people he savaged. I am not a brutal killer Instinctively thought I. Twenty nine or may be Around thirty he is An age of exploring individual What seems  palpable In the eyes of Indian youth, Some criminal gang he worked with. In a secluded cell behind bars he stays It bears outside ‘eikaantwaas’ That swiftly reminds me of gentle sainthood, Government feeds such people lifetime It is Law and system's mood Some caged birds With intense darkness on face Looking out from cages With dead hopes in weary eyes And listening the chirruping of Free birds outside. Against feudalism Sridatta had initiated hunger strike And remained without food For eighty four pathetic days And died, With a shining name on Pages of history. Do they regret? Of what they have done The question seeks our adequate awareness, They must be in a rosy desire Of boundless liberation  and To take a fresh breathe With a fearless flight. (Ins

और सामने होती हो तुम...

मैं लेकर आया चंद बून्दें उस दरिया से जहाँ पहुंचा मैं कुछ पेचीदा रास्तों से होकर और लिख दिया तेरा नाम एक सादे कागज पर, और हां मुकम्मल हो गयी एक कहानी, ये महसूस भी नही होता कि किरदारों को बयां करूं, बस तेरे खयाल भर से हर एक हर्फ़ कहने लगता है एक दास्तां। लौटाकर तुमने साँसों को बेहद घने अंधेरों से, एक अनन्त पुल बाँधा कि जिसमे हर रोज सफर करते हैं हम; पहुंचकर इसके छोर तक कभी तो मुझे देखना है कि कैसे तुमने बाँधा है इस पुल को। खुद को जो भी मैं लिखा करता हूँ कि लोग जिससे जानते हैं मेरा लिखना वो दरअसल कुछ भी नही खुद का, गर मैं पढ़ नही पाता हूँ जितनी भी परतें खुद में समाए हुए है एक फैला हुआ सागर एहसासों का तो ठीक ही तो हूं मैं जो कि लिखता हूँ खुद को बस इन्ही परतों के शून्य से होकर मैं जान पाऊंगा जो है एक बड़ी सच्चाई। ढूंढना एक शब्द को बेहद इत्मीनान से जो कि रखता हो एक सामर्थ्य तुम्हे कह जाने की ये कतई मेरे सामर्थ्य में नही; या शायद कहीं है भी नही किसी भाषा मे, मै सिर्फ माँ कहता हूँ और सामने होती हो तुम। (माँ को समर्पित) 12 नवम्बर 2018 Copyright

पहाड़ अकेले हो गए हैं...

वो घर अब सांस नही लेता खंडहर हो चुका है कहीं खुशबू नही है न हलचल कहीं नज़र आती है। पिरामिडनुमा आकार में पठाल   से बनी हुई छतें थी और सांस लेता था कभी महकता सा घर था, कि  दीवारें जिसकी बेहद सलीखे से बनी थी मोह्हब्बत से और चूल्हे के धुएँ से गरम थपकियाँ लेती थी, तमाम यादें उससे जुड़ी हुई आज दम तोड़ चुकी हैं कि हम उसको छोड़ आये थे अकेला बहुत वक्त पहले। छोटी रौशनदान से जब हर सुबह झांकती थी सूरज की रौशनी दीवार पर एक नई जिंदगी को हाथों में लिए तो हम आँकते थे वक्त को जरा सा उस रौशनी के खिसक जाने पर, कि हो चला है वक्त किताबों से भरा बस्ता लेकर एक लंबी चढ़ाई चढ़ते हुए स्कूल की तरफ बढ़ने का; कभी बादलों ने गर आगोश में ले लिया हो सूरज को तो निकल पड़ते थे कभी भी। आज देखता हूँ सारा गाँव उजाड़ हो चला है, यादों के टूटे दिए बिखरे नजर आते हैं वीरान अंधेरों में। ये पहाड़ अकेले हो गए हैं बहुत अकेले, इनसे नही करता  बातें कोई, इनको रोते हुए महसूस किया है मैने कि इनके अश्कों में एक संस्कृति नज़र आती है बहते हुए। मैने पाया कि बहुत सी परम्पराएं अभी भी जिंदा रखी जा सकती

तुम बोल रही हो....

ओढ़कर एक चादर हया की जो न जाने कितनी गज़लें मुकम्मल कर रही है, तुम बोल रही हो। बहुत ही धीमी एक मुस्कुराहट जो कि न जाने कितने बेहतरीन लब्जों की एक तस्वीर उतार रही है कैनवास पर, तुम बोल रही हो। तुम एक चित्र हो और तुम्हारी तस्वीर एक उम्दा शब्दचित्र, हां, तुम बोल रही हो। ऐसा भी नही है कि तुम्हे सुना मैने बुदबुदाते हुए सिर्फ खामोश देखा तुम्हे मैने लबों पर शब्द हैं शायद न जाने कितने पर, हां, तुम बोल रही हो। जो रंग ओढ़ा है बदन पर तुमने उसके मायने सिर्फ यहीं नजर आते हैं कहीं और नहीं, कि हां, तुम बोल रही हो। इसने समेटा है खुद में बहुत आयामों को हर वक्त कुछ तो मैं सुनूंगा हालांकि मैंने सुना नही है कुछ पर, हां, तुम बोल रही हो। 04 नवम्बर 2018 (एक चित्र से प्रेरित) Copyright@ 'अनपढ़'

ख़ामोश सिसकियाँ...

एक ख्वाब उतरकर तुम्हारी आँखों से गुम है मेरे उन अश्कों में जो सिर्फ अंदर ही रह गए। उम्मीद की छड़ी टेके हुए उन आंखों में ख्वाबों की खिड़की से तमाम रौशनी घर की हर एक चीज को रोशन कर रही थी लेकिन बेहद खामोश पैरों से उजाले को लेकर अपने आगोश में शायद अनजान अंधेरा खौफ फैला देता है जो कि कदमों को सरकने नहीं देता। तुम्हारी खामोश सिसकियों का जवाब मेरी कविता के हर लब्ज़ में नजर आएगा शोर करते हुए। जो बही तुम्हारे जहन से एक नदी बनकर वो एक मोह्हब्बत थी, मैं उस नदी के एक बूंद के बराबर भी नही हूँ हालांकि अनगिनत बूंदों से ही बहा करती है एक नदी। अकेलेपन की शोरगुल हवाओं के साथ मैं उठ के आ जाता हूँ बहुत दूर खुद के हर हिस्से को लेकर लेकिन तुम्हे उसी जगह पाया गया जहां ख्वाब वीरान पड़ा हुआ सिर्फ सिसकियों के सहारे जी रहा है; मैं ख्वाहिश में हूँ उस जगह आने की और मैं चंद लब्जों की खुशबू वहां बिखेर दूंगा ताकि ख्वाब अपने बेजान हिस्से को दफनाकर मिट्टी में पहुंच जाए उस जगह जहां से वो निकल आया था कई चेहरों की चमक खुद में लेकर। 02 नवम्बर 2018 Copyright@ 'अनपढ़&#

शाखों पर...

मैं अगर लौट पाया वहाँ से तो एक मुट्ठीभर मिट्टी लेके आऊंगा, और तोड़कर लाऊंगा वो अलसाये हुए पत्ते पेड़ से जो कि गिरने वाले हैं शाखों से। देखूँगा दम तोड़ते हुए उन पत्तों को और, याद करूंगा वो खाली जगह पेड़ पर उनकी जहाँ कुछ वक्त बाद निकल आएंगे नए पत्ते। मैं किसी अजनबी रास्ते की बात तो नहीं कर सकता लेकिन, जो रास्ते बेजान पड़े हैं सामने खुद में लटकाये हुए हजारों पदचिन्हों का बोझ उन पर जरूर कुछ बातें की जा सकती हैं। जो कुछ भी आजकल हमारे आसपास पसारे हुए है पैरों को अपने उससे पूरी सभ्यता बजाय कहीं पहुंचने के सिर्फ घुट के रह जायेगी एक जगह। शाखों पर अलसाये हुए पत्ते एक हल्के झोंके के साथ हवा के गिर जाते हैं जमीं पर। धरती पर दौड़ते हुए इंसान कीड़ों से नजर आते हैं रेंगते हुए एक रफ्तार में जो कि कभी थमती हुई नजर नही आती। मेरे अलावा सिर्फ मैं ही ये जानता हूँ कि बेवजह हंस लेता हूँ मैं खुद में कई दफा। 28 अक्टूबर 2018 Copyright @ 'अनपढ़'