ओढ़कर एक चादर
हया की
जो न जाने कितनी गज़लें
मुकम्मल कर रही है,
तुम बोल रही हो।
बहुत ही धीमी
एक मुस्कुराहट
जो कि न जाने कितने
बेहतरीन लब्जों की
एक तस्वीर उतार रही है
कैनवास पर,
तुम बोल रही हो।
तुम एक चित्र हो
और तुम्हारी तस्वीर
एक उम्दा शब्दचित्र,
हां, तुम बोल रही हो।
ऐसा भी नही है कि
तुम्हे सुना मैने बुदबुदाते हुए
सिर्फ खामोश देखा तुम्हे मैने
लबों पर शब्द हैं शायद
न जाने कितने पर,
हां, तुम बोल रही हो।
जो रंग ओढ़ा है
बदन पर तुमने
उसके मायने
सिर्फ यहीं नजर आते हैं
कहीं और नहीं,
कि हां, तुम बोल रही हो।
इसने समेटा है खुद में
बहुत आयामों को
हर वक्त
कुछ तो मैं सुनूंगा
हालांकि
मैंने सुना नही है कुछ पर,
हां, तुम बोल रही हो।
04 नवम्बर 2018
(एक चित्र से प्रेरित)
Copyright@
'अनपढ़'
Comments
Post a Comment
Dr. Deepak Bijalwan
Poet, Translator