चलते फिरते घर
खयालों के
और उनमें
रात के किनारे पर
गहरी नींद से जागकर
अपनी आंखें मीचते हुए
सृजन की नई सुबहें
अपनी जिंदगी को
तैयार हैं जीने के लिए
कि जिनमें शब्दों के सूरज
सादी धरती पर कागज के
बोने वाले हैं लब्जों के बीज।
20 nov 2018
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'अनपढ़'
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Dr. Deepak Bijalwan
Poet, Translator