लड़खड़ाते सहारे
बैशाखी के
और उनको गले लगाकर
चल रहे थे
वो तमाम खयाल
उलझनों के माथों को
चूमते हुए
जिनको खुद मैंने
अपाहिज बनाया।
जाने अनजाने
अजनबी दास्तानों को
साथ लेकर जेबों में
किसी से
जोड़ता रहा
खुद में उमड़ते हुए अहसासों को
और खुद को
करता रहा बेखबर भी
सभी बेनाम आवाजों से,
आज उन सभी का मतलब
कहीं तो जरूर होगा
मगर दिखता नही।
हाँ आज देखता हूँ तो
कुछ नजर नही आता कहीं,
जो साथ चलता है मेरे
और वो कहीं खोये हुए
जर्जर कोनों में अंतस के
दबी हुई पहेलियों को
सुलझाता है
उसके बहुत पास हूँ तो
महसूस होता है
कि हर दिन
भीगता है मेरा जेहन
खुशनुमा जिंदगी की
हंसी बारिशों में।
कई दफे
शक होता है आंसुओं पर
कि न जाने कौन से आंसू
कितने सही हैं,
कोई दायरा भी तो नही है
कि जान पायें हम।
चलो कि
सुन लेता हूँ कुछ देर मैं
सिर्फ उसी को
और मान भी लेता हूँ उसको
तो फिर वो मुझसे है या
उसका साया हूँ मैं।
मैं जितना पास हूँ
इन दरख्तों के
तो लगता है
कि साँस
ओढ़े हुए है
सुकून की चादर।
19 नवंबर 2018
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'अनपढ़'
Umda...
ReplyDeleteMujhe bhi sak hota h asuo pr
शुक्रिया अश्म। हां उम्मीद है होता होगा।
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteबहुत शुक्रिया...
Deleteबहुत अच्छे मार्मिक
ReplyDeletemohhabbat bhaiya
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