अपने तय सफर को
जो अभी तक गुजर गया
मैं अपने भीतर झाँककर,
जर्जर खिड़कियों से
गुजारते हुए
कतई खोयी सी नजरों को...
मापता हूँ
वही कि जो बीत गया।
लम्हों की हर नई चीख से
होता है प्रतीत सा
बीतता सा लगता है
बेजान चीजें बनी हैं
ज्यों की त्यों कि हां
जो बीत रहा है
वही तो बीतता है।
- 'अनपढ़'
28 नवम्बर 2018
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Dr. Deepak Bijalwan
Poet, Translator