तुम उठाकर ले आओ उन्हें
ले आओ इकट्ठा कर के
जितना बटोर पाते हो
वो जो लम्हे
बिखरे हैं जगह-जगह और
बेहोश पड़े हैं वहाँ
इंसानों की शक्ल में
जहाँ वे अनगिनत लोगों की
ठोकरों से लहू लुहान हैं
और उनके चीथड़े
कंकड़ों के साथ नजर आते हैं कहीं;
इतना मैं यह सोचता हूँ
कि क्यों मैने
खुद को उलझाया रखा
उस जगह जहां
मेरा दिल और दिमाग
एक साथ नहीं था।
मैं पहले
कभी नही मिला तुमसे
कोई धुँधली याद भी नही है मुझे,
शायद एकाध बार
कहीं हो गयी हो मुलाक़ात,
पर हां खुद से मिलने के लिए
तय करना पड़ता है
एक बहुत लंबा सफर।
आज महसूस होता है
देखकर आईने में
कि उम्रें गुजर जाती हैं और
चेहरों पर
रह जाती हैं बस
वक़्त की झुर्रियां।
21 नवम्बर 2018
Copyright @
'अनपढ़'
Comments
Post a Comment
Dr. Deepak Bijalwan
Poet, Translator