कई सीढ़ियां उतरकर
अपने दिव्य रूपों के साथ
प्रकृति से
तुमने फिर
स्त्री में अपना घर ढूंढा।
आंखों में एक अनन्त समुद्र होने के बाद
जिसकी लहरें
अपार ऊर्जा को पालती हैं
अपनी गोद में थपकियों से, फिर
तुम उसके होंठो को छूकर
अहसास कराते हो
पहाड़ के जंगलों में
उम्दा बुराँसों का और
ऐसे ही हजारों पुष्पों का और
उनके नृत्य से बहते हुए
ओंस की छुअन का।
फिर चेहरे के हर पहलू में
रौशनी को लेपने के बाद
तुम बदन की सीढ़ियों से होकर
दूधिया बादलों में घुलते हो
जो उसके देहरूपी नभ पर
बहते हैं।
नजरों में हो तुम
और हर चीज
खूबसूरत दिखती है।
- 'अनपढ़'
30 नवम्बर 2018
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Dr. Deepak Bijalwan
Poet, Translator