पोटली एक ख्वाबों की
कहीं दफ़्न हुई
इतिहास में,
और उड़ गया वो हवा सा
जो कुछ भी था
मेरे एहसास में।
कुछ लकीरें मिट गई हैं
हाथ से मेरे कहीं
सब खो गया जैसे कहीं अब
है नही कुछ पास में।
कुछ थे करीब दोस्त जो
अब है नही उनका सहारा
डूबती कश्ती से निकला
अब ढूँढता हूँ मैं किनारा।
कुछ किताबें
खींचने मुझको लगी हैं
गर्द से जिनका ढ़का
चेहरा है मुरझा
ताकत नही है,
उठ के चला जाऊं कहीं मैं
लगता है टूटा सा
पड़ा है हिम्मत का पुर्जा।
29 जुलाई 2015
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'अनपढ़'
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Dr. Deepak Bijalwan
Poet, Translator