वो घर
अब सांस नही लेता
खंडहर हो चुका है
कहीं खुशबू नही है
न हलचल कहीं नज़र आती है।
पिरामिडनुमा आकार में
पठाल से बनी हुई छतें थी
और
सांस लेता था कभी
महकता सा घर था,
कि दीवारें जिसकी
बेहद सलीखे से
बनी थी मोह्हब्बत से
और चूल्हे के धुएँ से
गरम थपकियाँ लेती थी,
तमाम यादें
उससे जुड़ी हुई
आज दम तोड़ चुकी हैं
कि हम उसको
छोड़ आये थे अकेला
बहुत वक्त पहले।
छोटी रौशनदान से
जब हर सुबह झांकती थी
सूरज की रौशनी दीवार पर
एक नई जिंदगी को हाथों में लिए
तो हम
आँकते थे वक्त को
जरा सा उस रौशनी के
खिसक जाने पर,
कि हो चला है वक्त
किताबों से भरा बस्ता लेकर
एक लंबी चढ़ाई चढ़ते हुए
स्कूल की तरफ बढ़ने का;
कभी बादलों ने गर
आगोश में ले लिया हो सूरज को
तो निकल पड़ते थे कभी भी।
आज देखता हूँ
सारा गाँव
उजाड़ हो चला है,
यादों के टूटे दिए
बिखरे नजर आते हैं
वीरान अंधेरों में।
ये पहाड़
अकेले हो गए हैं
बहुत अकेले,
इनसे नही करता बातें कोई,
इनको रोते हुए महसूस किया है मैने
कि इनके अश्कों में
एक संस्कृति
नज़र आती है
बहते हुए।
मैने पाया कि
बहुत सी परम्पराएं
अभी भी
जिंदा रखी जा सकती हैं
जो कि
शायद दम तोड़ रही हैं
बशर्ते आप, मैं और मेरी ही उम्र के लोग
इनको सहेजने की ठान लें।
कोई आये तो सही मेरे साथ।
कुछ यादें
एक साफ चेहरा लेकर
आती हैं सामने
कि सभी लोग मेरे गाँव के
बैठते थे सबके पास
साझा होती थी सबसे
बेहद खुशनुमा कहानियां;
मगर आज
किरदार खो गए हैं
मरे तो नही हैं शायद,
मैं समझता हूँ
तलाशे जा सकते हैं।
हम खुद को ढूंढ रहे हैं
अजनबी जगहों पर,
अपनी सांस्कृतिक पहचान
और धरोहरों को
कहीं पीछे छोड़ आये हैं हम
पहाड़ के अकेलेपन में।
जुबान भी अपनी
कहीं खतरे में है
न जाने
कहाँ से कहाँ पहुंच चुके हैं हम
पर हम
छोड़ आये हैं बहुत कुछ।
09 नवम्बर 2018
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'अनपढ़'
पुराना घर
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