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Showing posts from January, 2019

औंधे मुंह गिरे हुए।

देहरी पर आहट को उतारते हुए कुल्हाड़ी से आहत सभी लोगों के हृदय धड़कना बंद कर देते हैं और धूप चमकती है घने गधेरे के ऊपर के जंगल में बहुत ही वेग से भागते हुए औंधे मुंह गिर पड़े हैं कई लोग और जो पकड़े हुए थे उनका हाथ। ये खाली प्याला है कुछ वक्त पहले चाय थी इसमे उस गाय ने तो नही पी होगी जो सड़क पर भटक रही है उसके मुंह से खून टपक रहा है गौरक्षक दल हैं कई भगवाधारी लोग, भक्त राजनीति के लोग भी कुछ न कुछ कहते ही रहते हैं। जो लोग आग बुझाने में लगे हैं बड़ी मेहनत से मालूम होता है कि आग सुलगाई भी इन्हीं ने थी हमारा जंगल, हमारे पौधे जानवर और परिन्दे सभी झुलस गए हैं और जलकर खाक हो गए हैं कयी हमारी चेतनाएं तक जला दी गयी हैं सभी उम्मीदों को दे दी है आग समझ को और जुबान को भी 'बणाग' में धकेल दिया है। (बणाग - जंगल में लगी हुई भयानक आग।) 24 जनवरी 2019 Copyright @ 'अनपढ़'

हजारों रास्ते।

ये जितना कुछ भी दिखता है घुला हुआ या छूता हुआ सा या दिखता सा लगता है ये हजारों रास्ते जो कि निकलते हैं मेरे अंदर से कहीं न कहीं तो पहुंचते होंगे, मैं कुछ दूर खुद को ले जाकर किसी रास्ते पर पाता हूँ कि हजारों रास्ते फिर फूटते हैं मेरे भीतर से कहीं और बेखुद होकर सोचता रहता हूँ मैं और वक़्त की लहरों पर बहती है उम्र और तय करती है सफर अपना। 29 जनवरी 2019 Copyright @ 'अनपढ़'

चेतना को छूते हुए।

विकृत हुए लब्ज़ और खयालों का मलबा सभी कुछ वो सरकता हुआ डर और पिघलता हुआ लम्हा गाड़ियों के नीचे कुचला हुआ परिंदा और ढ़का हुआ धुंए से स्थिर सा माथा। चिल्लाता हुआ लालकिले से टूटी आवाज का घर और गरीबों की झोंपड़ियों का उड़ता हुआ तिरपाल बची-खुची साँसों को देता है थपकी कि गिरकर फिर उस पहाड़ी पे पहुंचना भी है। वो उड़कर आये हुए पत्ते कि पतझड़ की हवा ठंडक बर्फ की और छुअन पसरती हुई याद की या न समेटे जा सकने वाले दौड़ते से लम्हों की। लटकती हुई जुबान से टूटता हुआ शब्द पहुंचता है दरिया में जेहन के किसी कोने में। रात के खंजरों से लहूलुहान हुआ सवेरा खुद को लगाता है मरहम सूरज की किरणों से। 28- 30 जनवरी 2019 Copyright @ 'अनपढ़'

चित्रकार।

मैं उतरूंगा तुम्हारे कैनवास पर जब धुंधलके मुझे खत्म कर देंगे, राख कर देंगे सभी बने हुए चित्रों से सभी चित्रकारों की बनाई हुई तस्वीरों से, क्योंकि उसके बाद कहीं से भी कोई धुंधलापन मेरे करीब आकर भी छू नही पायेगा मेरे साये तक को और मैं सिर्फ एक तुम्हारी ही तस्वीर रहूंगा। मुझे बना रहे हैं कई चित्रकार, बनाते रहेंगे बनाते आये हैं, कोई बेरंग, कुछ रंगीन कुछ बेखुदी में और कुछेक होशोहवास में, कुछ ऐसै ही अजीब से अनजाने में; खटकते हैं कुछ चटक रंग हृदय में, आंखों में कुछ बनाये रखेंगे अपना प्रभाव लंबे वक्त तक, कुछ जानता भी नही हूँ कि तुमने खरीदा भी है साजो सामान तस्वीरों को ढ़ालने का कैनवास पर पर तुम बनाओगे तो वो अद्वितीय होगी सिर्फ एक ही होगी क्योंकि तुम एक पूर्ण चित्रकार हो। 19 जनवरी 2019 Copyright @ 'अनपढ़ '

याद।

कोई भी याद चली आती है आंखों में न जाने कहाँ रुकी होती हैं अपना डेरा डालकर किस घर में कौन सी जगह; उदास हवाओं के सहारे खच्चरों को खदेड़ने की याद हो धधकती दोपहर में जिंदगी को हांकने की याद हो जंगलों में बहते अंधड़ की याद हो टिफिन में पैंसे छुपाकर माँ को चौंकाने की याद हो ठिठुरती रेत से हाथ की उंगलियों के जल जाने की याद हो धुँधली हुई यादों की याद हो छुपी दुबकी हुई याद हो काम से घर लौटने पर जेहन में सुकून के उतरने की याद हो आंखों में किसी प्रेम के बहने की याद हो दबे पाँव मूक बनकर लहराती सी है हलचल सी कर देती है, चली आती है सरकते हुए और हमे वो विलीन करती है खुद में एकटक आँखें निर्जीव सी कोई अंदाजा नही अपनी स्थिति का और चित्त कहीं अवचेतन में, खंगालती होती है और ये हमे ले रही होती है अपने आगोश में और हम किसी सपने सी चमकती चारदीवारी में अपने को पाते हैं ढुलकती हुई रियासतों में। 16-19  जनवरी 2019 Copyright @ 'अनपढ़'

बचपन के गलियारों में।

वो जो स्कूल के पीछे गलियारा है न साथी तुमने एक कंकड़ उठाकर उसमे ठहरे हुये पानी पर मार दिया छपाक से जो जमा हुआ था पिछले दिन की बारिश में खूब बरसा था आसमान, और हलचल मुझे आज अरसों बाद महसूस होती है जहाँ पर गिरा कंकड़ उसके चारों ओर उठती हैं तरंगें; तुमने अपनी स्वेटर देखी? उसका बाजू देखना काला पड़ चुका है नाक साफ करते हुए और वो जूते देखो काले जूते पूरी गीली मिट्टी ने खुद को ओढ़ दिया है। अरे रे बैठो बैठो गुरुजी आ गए दिखता है ये टाट तो ठीक कर लो यार, यार वो जो दिया था याद करने को वो पाठ और कुछ प्रश्न और होमवर्क वो हुआ है क्या? बहुत कंपकपाती ठंड है आज भी है बरसों पहले भी थी आज सभी न जाने कहाँ कहाँ रोजगार के सिलसिलों में है कोई मुलाक़ात नही हो पाती बातचीत नही हो पाती हां सब लोग उम्मीद जरूर लगाए हुए हैं बातें भी करते हैं कि मिलकर खूब बातें करेंगे। गए सालों में जो सर्दियाँ थी और उनमें जो बारिशें थी वो बहुत करीब थी हमारे हमें छुआ करती थी भीतर तक आज नही है साथी। एक हाथ मैली पैंटों की जेब में और एक हाथ एक दूसरे के गले में डालकर चलें क्या उसी गलियारे में बेफिक्

ओ साथी!

रात सुनाई पड़ रही है कुछ बोलती सी घटा खुद में घुले अश्कों को है तोलती सी बहुत ही हाँफकर क्यों हो डगर में आओ मैं हूँ साथ बैठो छाँव में ओ साथी! अधूरी अधूरी सी लगती है दुनिया न तेरी न मेरी है किसी की न दुनिया क्यों खलिश सी पालकर बैठे हो तुम आओ मैं हूँ साथ बैठो पास मेरे ओ साथी! रिसते घाव हैं तो हैं मरहम हवाएं भी खयाल उदास हैं तो हैं खुशनुमा फिजायें भी क्यों अंगारों को ताकते रहते हो तुम आओ मैं हूँ साथ कुछ बात कर लें ओ साथी! ये चाँदनी नहलाती है जेहन को उतरकर और खामोशी गहनाती हुई आती हैं संवर कर क्यों हमेशा शोर में रहते है तुम आओ मैं हूँ साथ कुछ खामोशी उड़ेलें ओ साथी। 10 जनवरी 2019 Copyright @ 'अनपढ़'

अभी न्याय हो रहा है...!

ऑर्डर! ऑर्डर! ऑर्डर! इस शाख पे जो घोंसला हुआ करता था वो अब नहीं है मुझे महज़ उसके तिनके जमीन पर गिरे हुए नज़र आते हैं; क्या कोई हवा का झोंका इसको नेस्तनाबूद कर गया या किसी इंसान ने जमीन से पत्थर मारा हो। इसको छोड़कर इसी की जगह पर अपने ही बिलखते हाल में नए दस्तावेजों को देखते हैं; सभी कानून को समझने का दावा करनेवाले काला कोट पहनकर इंतजार कर रहे हैं न्यायाधीश का वो आकर थोड़ा अपने आसपास झाँककर चश्मे को सरकाकर अपनी नाक से अदालत शुरू करते हैं या कहूँ कि न्यायालय शुरू करते हैं। आये दिन ढेरों मामलात पैदा होते हैं और अदालतों के दरवाजों पर देते हैं दस्तक, चीखते चिल्लाते, लड़खड़ाते हुए लोग उम्र काट लेते हैं पर उनके मामले की फ़ाइल अभी अदालत में नही खुली। सभी शाखाओं पर सभी पत्ते गिरते हैं हरे होते हैं, पीले पड़ते हैं जूझते हैं हवा से सूखते हैं और गिर जाते हैं बेजान होकर; जड़ें कहाँ हैं कानून में लचीलापन है या बात कुछ और है भ्रष्टाचार की बेशर्म और बेरहम हवा कौन सी शाख पर घोंसलों को गिरा रही है किस पत्ते में बनकर कीड़ा उसको खत्म कर रही है जड़ों में है या मिट्टी में जहाँ

स्मृतियां...

जिस तरह से स्मृतियां लोगों की, जगहों की, किस्सों की किसी भी रास्ते की उमड़कर बहती हैं मुझमें छलछलाते हुए मेरे हर हिस्से में और करती हैं मुझे अधीर घड़ी भर के लिए और कुछ पहरों के लिए कई दफे; क्या वही जगहें, वही लोग, वही किस्से, वही रास्ते पाते होंगे मुझे भी दरवाजों पर अपनी चेतना के कभी भी अपनी याद की जागती सी खिड़कियों पर। Jan 15-17 ,19 Copyright @ 'अनपढ़'

उतर जाना मेरे भीतर...

आओ कि मैने बिछाई है चाँदनी शाम के महकते आंगन में अंगीठी अपनी गर्म थपकियों से मुझे सहेजती है। ये बीहड़ धरती मेरे आये दिन के कामों की और ये गहनाता, उड़ता हुआ धुआँ बनाता हुआ घरौंदे आवारा भटकते बादलों के तुम्हे स्पर्श करते हुए मेरे बहुत करीब पहुँचता है। ठिठुरती हुई पूस की रातें और कानों में चीखता हुआ सन्नाटा और ऐसे में सभी उजाले गहरी नींद में सोए हुए बस अब सही वक्त है तुम्हें कोई अवरोध नही मिलेगा चुपके से ऊँघती हुई खिड़की से होकर उतर जाना मेरे भीतर। राख को कुरेदकर हवा दो या बुझा दो कुछ तो करो बेख़बर, बेसुध सा कब तक रहूँ। कि रियायतें जीने में भी ये हरगिज बेतुकी बातें काटने- छांटने में क्यों रहो उलझे हुए जो भी है उसको खुद में बहाकर चलो जैसा भी है कि कोई शक्ल जिंदगी की नही है हर दफा बेशक्ल सा क्षण और जिंदगी की एक कोशिश खुद को करने की परिभाषित। 10-16 जनवरी 2019 Copyright @ 'अनपढ़'

जहाँ मौजूद हूँ...

अपने भीतर पड़ी हुई किन्हीं असीम गहराइयों में बासी सिलवटों को ठीक कर रहा हूँ मैं एक अरसे से, सुलझाने में लगा हूँ पेचीदगी से उलझे हुए दौड़ते, उड़ते हुए बुलबुले से सवालों को; बहुत सी बेवजह हुई बातें घटनाएँ, किस्से जिनको शायद होना था मुझे ढ़ालने के लिए आज के सांचे में कई दफे ठहराव ले आती हैं जिंदगी की धीमी हलचल में एक क्षणिक सा नमी की थपकी लिए। मेरा अतीत है... होता है हर किसी का जितने भी मेरे आस-पास के लोग बिखरकर बनाते हैं दुनिया लेकिन मुझे कोई लगाव नही है उससे; ठहराव में अकड़े हुए खयाल और मैं फिर से आज में पहुंच जाता हूँ जहां मौजूद हूँ। कल के वाकयों का कोई भी हिसाब मैं करना नहीं चाहता। लेकर आते हैं एक निवेदन तहखानों के अंधेरे कोने मेरे पास कि उजले हुए सभी कोनों में बहुत फिसलन है मत जाना और मैं दो किनारों के बीच सोच के थपेड़ों से उछलता रहता हूँ। दरख्तों की मृत शाखाएँ सौंप रही हैं संवेदनाएं कि लो...संभाल लो कहीं थकोगे सफर में तो इनको बिछाकर सुस्ता लेना घड़ी भर। 03 - 09 जनवरी 2019 Copyright @ 'अनपढ़'

कविता की यात्रा और कवि...

मैं नहीं कहूँगा कुछ भी नही करूँगा कुछ भी अभिव्यक्त, अपने होंठों से नही खिसकने दूँगा शब्दों को, लब्जों के मायने नहीं हैं मेरी पकड़ में; तुम खुद फैला देना हर एक बात को हवा में; परेशान सा हुआ या हुआ अगर बेचैन जो तो बैठ जाऊंगा तुम्हारे पास। तुम कहाँ से होकर किस दिशा में जाओगी ये सिर्फ तुम्हारा ही काम है। तुम ढूंढ़कर अपने रास्ते जाओगी खुद-ब-खुद अपने कई आयामों के साथ। हाँ ... मैं रेतीली जमीन पर फिसलने नहीं दूंगा किसी भी हर्फ़ के साये तक को। तुम पूर्ण हो, प्रकृति हो मुझसे निकलने के बाद तुम मेरी नही हो तुम उस हर प्राणी से रखती हो नाता जो तुमको महसूस करता है जो नही करता उससे भी; क्योंकि लब्ज़ किसी एक के नही हो सकते ये हर एक होंठ से बहते हैं और हर किसी की बातें करते हैं। हां, तुम्हे ठीक उसी तरीके से नही किया जा सकता महसूस जब तुम मेरे अंदर उमड़कर मुझको बेचैन कर रही थी। मैं हर बार एक कविता के बाद मरता हूँ और हर लमहा जीता हूँ उसमें चाहे वो धूल में हो या बंद शीशों की आलमारियों में जब तुम्हें महसूस करनेवालों की धड़कनों के अंतर्मन किसी मजदूर के पैरों की दरारों में