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Showing posts from January, 2019

औंधे मुंह गिरे हुए।

देहरी पर आहट को उतारते हुए कुल्हाड़ी से आहत सभी लोगों के हृदय धड़कना बंद कर देते हैं और धूप चमकती है घने गधेरे के ऊपर के जंगल में बहुत ही वेग से भागते हुए औंधे मुंह गिर पड़े हैं क...

हजारों रास्ते।

ये जितना कुछ भी दिखता है घुला हुआ या छूता हुआ सा या दिखता सा लगता है ये हजारों रास्ते जो कि निकलते हैं मेरे अंदर से कहीं न कहीं तो पहुंचते होंगे, मैं कुछ दूर खुद को ले जाकर किस...

चेतना को छूते हुए।

विकृत हुए लब्ज़ और खयालों का मलबा सभी कुछ वो सरकता हुआ डर और पिघलता हुआ लम्हा गाड़ियों के नीचे कुचला हुआ परिंदा और ढ़का हुआ धुंए से स्थिर सा माथा। चिल्लाता हुआ लालकिले से टूट...

चित्रकार।

मैं उतरूंगा तुम्हारे कैनवास पर जब धुंधलके मुझे खत्म कर देंगे, राख कर देंगे सभी बने हुए चित्रों से सभी चित्रकारों की बनाई हुई तस्वीरों से, क्योंकि उसके बाद कहीं से भी कोई ध...

याद।

कोई भी याद चली आती है आंखों में न जाने कहाँ रुकी होती हैं अपना डेरा डालकर किस घर में कौन सी जगह; उदास हवाओं के सहारे खच्चरों को खदेड़ने की याद हो धधकती दोपहर में जिंदगी को हां...

बचपन के गलियारों में।

वो जो स्कूल के पीछे गलियारा है न साथी तुमने एक कंकड़ उठाकर उसमे ठहरे हुये पानी पर मार दिया छपाक से जो जमा हुआ था पिछले दिन की बारिश में खूब बरसा था आसमान, और हलचल मुझे आज अरसों ...

ओ साथी!

रात सुनाई पड़ रही है कुछ बोलती सी घटा खुद में घुले अश्कों को है तोलती सी बहुत ही हाँफकर क्यों हो डगर में आओ मैं हूँ साथ बैठो छाँव में ओ साथी! अधूरी अधूरी सी लगती है दुनिया न तेरी ...

अभी न्याय हो रहा है...!

ऑर्डर! ऑर्डर! ऑर्डर! इस शाख पे जो घोंसला हुआ करता था वो अब नहीं है मुझे महज़ उसके तिनके जमीन पर गिरे हुए नज़र आते हैं; क्या कोई हवा का झोंका इसको नेस्तनाबूद कर गया या किसी इंसान ने...

स्मृतियां...

जिस तरह से स्मृतियां लोगों की, जगहों की, किस्सों की किसी भी रास्ते की उमड़कर बहती हैं मुझमें छलछलाते हुए मेरे हर हिस्से में और करती हैं मुझे अधीर घड़ी भर के लिए और कुछ पहरों के ...

उतर जाना मेरे भीतर...

आओ कि मैने बिछाई है चाँदनी शाम के महकते आंगन में अंगीठी अपनी गर्म थपकियों से मुझे सहेजती है। ये बीहड़ धरती मेरे आये दिन के कामों की और ये गहनाता, उड़ता हुआ धुआँ बनाता हुआ घरौं...

जहाँ मौजूद हूँ...

अपने भीतर पड़ी हुई किन्हीं असीम गहराइयों में बासी सिलवटों को ठीक कर रहा हूँ मैं एक अरसे से, सुलझाने में लगा हूँ पेचीदगी से उलझे हुए दौड़ते, उड़ते हुए बुलबुले से सवालों को; बहुत ...

कविता की यात्रा और कवि...

मैं नहीं कहूँगा कुछ भी नही करूँगा कुछ भी अभिव्यक्त, अपने होंठों से नही खिसकने दूँगा शब्दों को, लब्जों के मायने नहीं हैं मेरी पकड़ में; तुम खुद फैला देना हर एक बात को हवा में; पर...