वो जो स्कूल के पीछे
गलियारा है न साथी
तुमने एक कंकड़ उठाकर
उसमे ठहरे हुये पानी पर मार दिया
छपाक से
जो जमा हुआ था
पिछले दिन की बारिश में
खूब बरसा था आसमान,
और हलचल मुझे आज
अरसों बाद महसूस होती है
जहाँ पर गिरा कंकड़
उसके चारों ओर उठती हैं तरंगें;
तुमने अपनी स्वेटर देखी?
उसका बाजू देखना
काला पड़ चुका है
नाक साफ करते हुए
और वो जूते देखो
काले जूते
पूरी गीली मिट्टी ने
खुद को ओढ़ दिया है।
अरे रे बैठो बैठो
गुरुजी आ गए दिखता है
ये टाट तो ठीक कर लो यार,
यार वो जो दिया था याद करने को
वो पाठ और कुछ प्रश्न
और होमवर्क
वो हुआ है क्या?
बहुत कंपकपाती ठंड है
आज भी है
बरसों पहले भी थी
आज सभी न जाने
कहाँ कहाँ रोजगार के सिलसिलों में है
कोई मुलाक़ात नही हो पाती
बातचीत नही हो पाती
हां सब लोग उम्मीद जरूर लगाए हुए हैं
बातें भी करते हैं
कि मिलकर खूब बातें करेंगे।
गए सालों में जो सर्दियाँ थी
और उनमें जो बारिशें थी
वो बहुत करीब थी हमारे
हमें छुआ करती थी भीतर तक
आज नही है साथी।
एक हाथ मैली पैंटों की जेब में
और एक हाथ
एक दूसरे के गले में डालकर
चलें क्या उसी गलियारे में बेफिक्र
काश कि ऐसा हो पाता साथी
ये बेहद बेतुकी सी बात
कर रहा हूँ मैं।
अच्छा यार वो एक रुपये में
जेब भर कर नमकीन मिलेंगी क्या हमें कहीं?
जो जेबों में तेल की छापें छोड़ जाती थीं
आज एक रुपये के लिए
माँ या पापा से तो
मिन्नतें नहीं करनी पड़ेंगी।
कहाँ हो यार सब लोग
अब क्यों नहीं दिखते
जिंदगी वक़्त के पहियों के नीचे
कुचली चली जाती है
हम हर लम्हा
खुद के पास से गुजरता हुआ देख रहे हैं
साल दर साल
अरसे बीत रहे हैं
एक दिन यूं ही
जिंदगी की शाम ढ़ल जाएगी
और यादें सिर्फ अपनी अपनी जगह पर
विलीन हो जाएंगी साथी
या लटकती रहेंगी
किन्हीं अनजान खूँटियों पर।
(प्रिय दोस्त गौरव के निवेदन से प्रेरित)
20 जनवरी 2019
Copyright @
'अनपढ़ '
Comments
Post a Comment
Dr. Deepak Bijalwan
Poet, Translator