अपने भीतर पड़ी हुई
किन्हीं असीम गहराइयों में
बासी सिलवटों को
ठीक कर रहा हूँ
मैं एक अरसे से,
सुलझाने में लगा हूँ
पेचीदगी से उलझे हुए
दौड़ते, उड़ते हुए
बुलबुले से सवालों को;
बहुत सी बेवजह हुई बातें
घटनाएँ, किस्से
जिनको शायद होना था
मुझे ढ़ालने के लिए
आज के सांचे में
कई दफे
ठहराव ले आती हैं
जिंदगी की धीमी हलचल में
एक क्षणिक सा
नमी की थपकी लिए।
मेरा अतीत है...
होता है हर किसी का
जितने भी मेरे आस-पास के लोग
बिखरकर बनाते हैं दुनिया
लेकिन मुझे कोई
लगाव नही है उससे;
ठहराव में अकड़े हुए खयाल
और मैं फिर से
आज में पहुंच जाता हूँ
जहां मौजूद हूँ।
कल के वाकयों का
कोई भी हिसाब
मैं करना नहीं चाहता।
लेकर आते हैं
एक निवेदन
तहखानों के अंधेरे कोने मेरे पास
कि उजले हुए सभी कोनों में
बहुत फिसलन है
मत जाना
और मैं
दो किनारों के बीच
सोच के थपेड़ों से
उछलता रहता हूँ।
दरख्तों की मृत शाखाएँ
सौंप रही हैं
संवेदनाएं
कि लो...संभाल लो
कहीं थकोगे सफर में
तो इनको बिछाकर
सुस्ता लेना घड़ी भर।
03 - 09 जनवरी 2019
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'अनपढ़'
वाह....
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