विकृत हुए लब्ज़
और खयालों का मलबा
सभी कुछ
वो सरकता हुआ डर
और पिघलता हुआ लम्हा
गाड़ियों के नीचे
कुचला हुआ परिंदा
और ढ़का हुआ धुंए से
स्थिर सा माथा।
चिल्लाता हुआ लालकिले से
टूटी आवाज का घर
और गरीबों की झोंपड़ियों का
उड़ता हुआ तिरपाल
बची-खुची साँसों को
देता है थपकी
कि गिरकर फिर
उस पहाड़ी पे पहुंचना भी है।
वो उड़कर आये हुए पत्ते
कि पतझड़ की हवा
ठंडक बर्फ की और
छुअन पसरती हुई याद की
या न समेटे जा सकने वाले
दौड़ते से लम्हों की।
लटकती हुई जुबान से
टूटता हुआ शब्द
पहुंचता है दरिया में
जेहन के किसी कोने में।
रात के खंजरों से
लहूलुहान हुआ सवेरा
खुद को लगाता है मरहम
सूरज की किरणों से।
28- 30 जनवरी 2019
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'अनपढ़'
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Dr. Deepak Bijalwan
Poet, Translator