मैं नहीं कहूँगा कुछ भी
नही करूँगा कुछ भी अभिव्यक्त,
अपने होंठों से
नही खिसकने दूँगा शब्दों को,
लब्जों के मायने
नहीं हैं मेरी पकड़ में;
तुम खुद फैला देना
हर एक बात को हवा में;
परेशान सा हुआ या
हुआ अगर बेचैन जो
तो बैठ जाऊंगा तुम्हारे पास।
तुम कहाँ से होकर
किस दिशा में जाओगी
ये सिर्फ तुम्हारा ही काम है।
तुम ढूंढ़कर अपने रास्ते
जाओगी खुद-ब-खुद
अपने कई आयामों के साथ।
हाँ ... मैं रेतीली जमीन पर
फिसलने नहीं दूंगा
किसी भी हर्फ़ के साये तक को।
तुम पूर्ण हो, प्रकृति हो
मुझसे निकलने के बाद
तुम मेरी नही हो
तुम उस हर प्राणी से
रखती हो नाता
जो तुमको महसूस करता है
जो नही करता उससे भी;
क्योंकि लब्ज़
किसी एक के नही हो सकते
ये हर एक होंठ से बहते हैं
और हर किसी की बातें करते हैं।
हां, तुम्हे ठीक उसी तरीके से
नही किया जा सकता महसूस
जब तुम
मेरे अंदर उमड़कर
मुझको बेचैन कर रही थी।
मैं हर बार एक कविता के बाद
मरता हूँ
और हर लमहा जीता हूँ उसमें
चाहे वो धूल में हो
या बंद शीशों की आलमारियों में
जब तुम्हें महसूस करनेवालों की
धड़कनों के अंतर्मन
किसी मजदूर के पैरों की दरारों में झाँकेंगे
और महलों के
चटक पायदानों से उतरकर
खंडहरों के सूनेपन को
अपने आगोश में लेंगे और
नंगे बदन फुटपाथ पर
ठिठुरते हुए इंसानों को
अपने बदन का कपड़ा उतारकर देंगे
और राजनीति की बेवकूफियों से बचकर
सिर्फ इंसानियत पे विश्वास रखेंगे
तब मैं लिया करूँगा साँसें;
और मैं पैदा होता हूँ फिर
एक नई कविता में;
इसलिए मैं जितनी बार मरूंगा
उतनी ही बार पुनर्जन्म लूंगा।
27 दिसम्बर 2018
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'अनपढ़'
वाह सर
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