देहरी पर आहट को उतारते हुए
कुल्हाड़ी से आहत
सभी लोगों के हृदय
धड़कना बंद कर देते हैं
और धूप चमकती है
घने गधेरे के ऊपर के जंगल में
बहुत ही वेग से भागते हुए
औंधे मुंह गिर पड़े हैं कई लोग
और जो पकड़े हुए थे उनका हाथ।
ये खाली प्याला है
कुछ वक्त पहले चाय थी इसमे
उस गाय ने तो नही पी होगी
जो सड़क पर भटक रही है
उसके मुंह से खून टपक रहा है
गौरक्षक दल हैं कई
भगवाधारी लोग, भक्त
राजनीति के लोग भी
कुछ न कुछ
कहते ही रहते हैं।
जो लोग आग बुझाने में लगे हैं
बड़ी मेहनत से
मालूम होता है कि
आग सुलगाई भी इन्हीं ने थी
हमारा जंगल, हमारे पौधे
जानवर और परिन्दे
सभी झुलस गए हैं और
जलकर खाक हो गए हैं कयी
हमारी चेतनाएं तक जला दी गयी हैं
सभी उम्मीदों को दे दी है आग
समझ को और जुबान को भी
'बणाग' में धकेल दिया है।
(बणाग - जंगल में लगी हुई भयानक आग।)
24 जनवरी 2019
Copyright @
'अनपढ़'
Comments
Post a Comment
Dr. Deepak Bijalwan
Poet, Translator