कोई भी याद
चली आती है
आंखों में
न जाने कहाँ
रुकी होती हैं
अपना डेरा डालकर
किस घर में
कौन सी जगह;
उदास हवाओं के सहारे
खच्चरों को खदेड़ने की याद हो
धधकती दोपहर में
जिंदगी को हांकने की याद हो
जंगलों में बहते अंधड़ की याद हो
टिफिन में पैंसे छुपाकर
माँ को चौंकाने की याद हो
ठिठुरती रेत से
हाथ की उंगलियों के
जल जाने की याद हो
धुँधली हुई यादों की याद हो
छुपी दुबकी हुई याद हो
काम से घर लौटने पर
जेहन में सुकून के उतरने की याद हो
आंखों में किसी प्रेम के बहने की याद हो
दबे पाँव मूक बनकर
लहराती सी है
हलचल सी कर देती है,
चली आती है
सरकते हुए
और हमे वो
विलीन करती है खुद में
एकटक आँखें निर्जीव सी
कोई अंदाजा नही
अपनी स्थिति का और
चित्त कहीं अवचेतन में,
खंगालती होती है और
ये हमे ले रही होती है
अपने आगोश में
और हम
किसी सपने सी
चमकती चारदीवारी में
अपने को पाते हैं
ढुलकती हुई
रियासतों में।
16-19 जनवरी 2019
Copyright @
'अनपढ़'
Comments
Post a Comment
Dr. Deepak Bijalwan
Poet, Translator