ये जितना कुछ भी
दिखता है
घुला हुआ या छूता हुआ सा
या दिखता सा लगता है
ये हजारों रास्ते
जो कि निकलते हैं
मेरे अंदर से
कहीं न कहीं
तो पहुंचते होंगे,
मैं कुछ दूर खुद को
ले जाकर किसी रास्ते पर
पाता हूँ कि हजारों रास्ते
फिर फूटते हैं
मेरे भीतर से कहीं
और बेखुद होकर
सोचता रहता हूँ मैं
और वक़्त की लहरों पर
बहती है उम्र
और तय करती है
सफर अपना।
29 जनवरी 2019
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'अनपढ़'
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Dr. Deepak Bijalwan
Poet, Translator