ऑर्डर! ऑर्डर! ऑर्डर!
इस शाख पे जो घोंसला हुआ करता था
वो अब नहीं है
मुझे महज़ उसके तिनके
जमीन पर गिरे हुए नज़र आते हैं;
क्या कोई हवा का झोंका
इसको नेस्तनाबूद कर गया
या किसी इंसान ने जमीन से
पत्थर मारा हो।
इसको छोड़कर इसी की जगह पर
अपने ही बिलखते हाल में
नए दस्तावेजों को देखते हैं;
सभी कानून को समझने का दावा करनेवाले
काला कोट पहनकर
इंतजार कर रहे हैं न्यायाधीश का
वो आकर थोड़ा अपने आसपास झाँककर
चश्मे को सरकाकर अपनी नाक से
अदालत शुरू करते हैं या कहूँ कि
न्यायालय शुरू करते हैं।
आये दिन ढेरों मामलात पैदा होते हैं
और अदालतों के दरवाजों पर
देते हैं दस्तक,
चीखते चिल्लाते, लड़खड़ाते हुए लोग
उम्र काट लेते हैं
पर उनके मामले की फ़ाइल
अभी अदालत में नही खुली।
सभी शाखाओं पर
सभी पत्ते गिरते हैं
हरे होते हैं, पीले पड़ते हैं
जूझते हैं हवा से
सूखते हैं और गिर जाते हैं बेजान होकर;
जड़ें कहाँ हैं
कानून में लचीलापन है या
बात कुछ और है
भ्रष्टाचार की बेशर्म और बेरहम हवा
कौन सी शाख पर
घोंसलों को गिरा रही है
किस पत्ते में बनकर कीड़ा
उसको खत्म कर रही है
जड़ों में है या मिट्टी में
जहाँ पेड़ है।
क्या कोई उम्मीद की जा सकती है
एक नई मिट्टी की
एक नई धरती की
एक नए सूरज की
नए चाँद तारों की
नए अंतरिक्ष की
नई आकाशगंगाओं की
नए सृजन की
नए मनुष्यों की।
ऑर्डर! ऑर्डर! ऑर्डर!
अभी न्याय हो रहा है।
12 - 15 जनवरी 2019
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Dr. Deepak Bijalwan
Poet, Translator