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Showing posts from June, 2021

वक़्त

वक़्त - 1 वक़्त पृथ्वी की छाती पर धड़क रहा है और हमारी छाती पर धड़क रही है पृथ्वी वक़्त - 2 रेत का कण  वक़्त के इतिहास का एक अध्याय है और हमारा अध्याय वक़्त का इतिहास है। वक़्त - 3 बादल के होंठो पर वक़्त की लालिमा है और हम पृथ्वी के होंठो पर घूम रहे हैं गुरुत्वाकर्षण के नियम से बंधे हुए। वक़्त - 4 ब्रह्मांड बिखर रहा है अंदर से और हमारा बिखराव वक़्त के कैलेंडर पर दिनों के माफ़िक  चिपका हुआ है। वक़्त - 5 वक़्त मेरे जूते के अंदर आकाश में छिपा हुआ है मेरे पैर की धड़कनें आकाश में वक़्त की खूँटी पर टंगी हैं। मार्च 2021 --'अनपढ़'

साथ होना

साथ होना हम दोनों एक साथ रात और दिन के एक साथ होने के बारे में सोच रहे हैं तुम अपने साथ मेरे साथ होने के एहसास को रखती हो और मैं तुम्हारे होने का अहसास अपने वजूद के एहसास में तलाशता हूँ। इसी साथ होने को जब  हमने साथ न होने पर सोचा होगा तो साथ होना कैसा रहा होगा एक खूबसूरत सपने के जैसा जो नींद के पहलुओं में उड़ते रंग के जैसा हो। यही वो वक़्त है जब वक़्त की धड़कनों को  महसूस किया जा सकता है। 'अनपढ़' दीपक बिजल्वाण 'अनपढ़' गढ़वाल विश्वविद्यालय में शोधार्थी हैं। "Pages of My College Diary" और "A Stream of Himalayan Melody: Selected Songs of Narendra Singh Negi" दो चर्चित  पुस्तकें प्रकाशित कर चुके हैं।

एहसास

तुम थी? एहसास नहीं था  कि तुम हो चुप...चुपचाप सरककर  चुप हो गया  इसी बीच तुम चुपके से आई और मुझे चुप के वृत्त में  त्रिज्या से लटककर रहना पड़ा तुम आयी? एहसास नहीं था  कि तुम आयी केंद्र से निकलती हुई तुम्हारी ऊर्जा  मुझे उसकी परिधि में समा रही थी केंद्र में तुम थीं? एहसास नहीं था  कि केंद्र में तुम थी तुम एहसास थी जो चुपके से एहसास हो गयी और मैं हवा में उड़ते हुए रंग तरंगित होते देख रहा था। 18 मार्च 2021 अनपढ़

छुअन

मैं उसके होंठों को  छुअन के आकाश में उड़ने के लिए छोड़ देता हूँ तो पैरों के नीचे जमीन महसूसने लगता हूँ उसके होंठ धरती के चेहरे पर हैं या मानें कि धरती के चेहरे पर उसके होंठ हैं और धरती के होंठ उसके होंठ है इसलिए जब मिलता है आकाश में उड़ती हुई छुअन को उसके होंठों का आकाश तो मेरे पैरों के नीचे जमीन महसूसने लगता हूँ। और उसके होंठों को छूकर मैं माँ के गर्भ में पहुँच जाता हूँ जहाँ सोचता हूँ कि मैं खुद को सोचते हुए देख रहा हूँ और पृथ्वी के होंठों पर  मैं पैदा हो जाता हूँ और पैदा होते ही मेरे पैरों के नीचे जमीन महसूसने लगता हूँ और फिर उसके होंठो के छुअन के आकाश को मैं खुद में उतार लेता हूँ मां के गर्भ में मुस्कुराता हुआ। ----दीपक बिजल्वाण 'अनपढ़'

ठीक अभी का वक़्त

मैं अपने तरह के सवालों को और उनके प्रत्याशित जवाबों को लेकर तुम्हारे भीतर से उठी अनसुलझी पहेलियों के वीरान और उजाड़ गाँव में छोड़ देता हूँ अगर मैं तुम्हारी तरफ और तुम मेरी तरफ न चली होती तो चलने की इस मृदुता को  शायद हम कभी समझ नहीं पाते जो मुझसे और तुमसे अलग हो चुका हम दोनों के साथ एक सा रहा अपने हिसाब से, और आने वाला वक़्त हमारे व्यक्तिगत वक़्तों से कैसे और किन हालातों में जुड़े इसका कोई साफ चित्र चेतना के कैनवास पर नजर नहीं आता इसलिए कहता हूँ कि ठीक अभी का वक़्त जब हम एक दूसरे की आँखों में देखकर मुस्कुरा रहे हैं , यकीनन सबसे हंसीन  और कीमती वक़्त है। हमे इस वक़्त को जी लेना चाहिए, मैं मेज पर रखा हुआ अपना चश्मा लगा लेता हूँ ताकि तुम्हारी पलकों तक  जो ख़्वाब उभर आये हैं उनको साफ देख पाऊं।  -- 'अनपढ़'