हर रोज, सुबह जब उठता हूँ मैं तो
मेरे संसार का दरख्त
उग आता है मेरी चेतना में
मेरे जीवन में
जो कि मेरे संसार से परिभाषित है,
दोपहर होती है,
सांझ भी पक्षियों का मधुर संगीत
और सरिताओं का मधुर- मधुर बहना।
फिर हर रात
मेरे संसार का दरख्त
बीज में परिणत हो जाता है,
मेरी नींद में
हर सुबह फिर
करोड़ों बरस बाद,
कई जन्मों की श्रृंखला के बाद
पूरा का पूरा दरख्त मेरे संसार का
उगता है;
झील पर जैसे चांद
मां के लिए
25.3.25
देहरादून
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Dr. Deepak Bijalwan
Poet, Translator