तुम तपती रही सारी उम्र धधकती दोपहरों में
ठिठुरती रही तुम पूस की तरह हमारे लिए
पतझड़ों में तुम झड़ती रही
जैसे शाखों से बेजान पत्ते,
घास के गट्ठरों के नीचे
तुम्हारी जिंदगी घिसती रही
खेतों में जलती रही तुम आड़ों की तरह हमारे लिए;
सिर्फ हमारे लिए ही रहा तुम्हारा जीना
खुद थकी सुबहों से लेकर उदास शामों तक
लगता नहीं कोई ख़याल किया होगा अपना
मुझे जान पड़ता है कि
तुम्हारी आँखों में उतर कर
ब्रह्मांड के किसी दूसरे हिस्से में
पहुंचा जा सकता है
तुम खुद को निचोड़ कर हमें सींचती रही
खून हो या पसीना
घर के हर एक कोने में तुम ही तो हो
तुम महकती रहती हो तो
ये चारदीवारी घर लगता है
क्योंकि तुम ही तो घर हो
तुम्हारे लिए काश कोई कविता हो पाए
मुझे उस लम्हे का इंतजार है बेसब्री से।
4 जून 2020
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Dr. Deepak Bijalwan
Poet, Translator