महज़ आइनों को ख़बर हुई कि क्या हो चला हूँ मैं ...पर
किन्हीं खयालों को चेहरा मिलने से बस 'मैं ' हो चला हूँ मैं
मैं और तू के फासलों से परे उतरना ......बस समंदर में
वरना बूँद-बूँद ...और ..दरिया-दरिया ....हो चला हूँ मैं
हकों की लड़ाइयों में बदन के चीथड़े ....धुआँ हो गए
और यहाँ जिन्दगी की मरम्मत में ..मुर्दा हो चला हूँ मैं
तितलियाँ लुढ़का गयी हैं हाथों के .....रुख़सारों पे अश्क
उनके छितराये हुए पंखों में हवा का झोंका हो चला हूँ मैं
तुम भी आना और कुछेक सवालों को ...लटका देना
कि सवालों की तह में घुला हर जवाब हो चला हूँ मैं
'अनपढ़'
17 मई 2020
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Dr. Deepak Bijalwan
Poet, Translator