खड़े हो बिजूके से.. क्यों कोई रंग नहीं दिखता?
उदास शामों के साये में वो बेरंग नहीं दिखता।
हां कि उतरकर पैमानों से परे अबकी हो जाएं कि
फिज़ा-ए-आज में जमाने की बीता रंग नहीं दिखता।
वो चिल्लाकर कह रहे हैं कि नक्शा बदल देंगे पर
उनकी बेअसर सी बातों का कोई ढंग नहीं दिखता।
हर एक रहबर नाचता है लोकतंत्र की छाती पर कि
सही मायनों में इंसानियत के कोई संग नहीं दिखता।
8 फरवरी 2019
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Dr. Deepak Bijalwan
Poet, Translator