Skip to main content

वजह

(पर्दों के सरकते ही
रंगमंच पर मानवीय सभ्यता
अपनी नजरें दौड़ाने लगती है)

और हम ये सब महसूस
कर पा रहे हैं
देख पा रहे हैं;
हमारे चारों ओर
जितनी भी हवाएँ,
जितने भी बवंडर पैदा होते हैं
लम्हों को सीने से लगाये हुए
हमें मालूम हो पड़ता है
कि ये किसी 'वजह' की आगोश में हैं
खामोशी के लिबास को पहने हुए
छितराये हुए चेहरों के ऊपर
डरी हुयी आंखें बताती हैं
कि कुछ होने के बाद
न जाने कितना कुछ
बदलने की राह पर है।

एकाएक किसी ऐसे खँडहर में
सहमी हुई पूरी सभ्यता
भाषा का उपयोग करना
या तो भूल चुकी है
या हर पल बढ़ती हुई
महामारी के अंधकार से
भाषा को अभिव्यक्त करने की कला
आत्मचिंतन में है!

कि ये क्या हो रहा है?

उधर परिंदे वो सब देख पा रहे हैं
जिन्हें न देख पाने की वजह से
वे खुद भी
विलुप्त हो गए थे।

31 मार्च 2020

Comments

Popular posts from this blog

Himalayan Symphony

"Himalayan Symphony: Songs and Poems of Narendra Singh Negi" is a book consisting of the English translation of the major songster and poet of Uttarakhand Himalayas Sri Narendra Singh Negi.  His expression has been inclusive of all the vivid colours of hill life. This book is a series of an earlier book "A Stream of Himalayan Melody: Selected songs of Narendra Singh Negi" which has been readily accepted by readers nationwide. This series envelops his poems and songs of great artistic value.  Foreword If ever one were to draw a map of popularity of individuals in the central Himalayas Shree Narendra Singh Negi would occupy the highest standing bar. It will be a gross mistake if one evaluated Negi just for the poignant songs he has written, sung and composed. He stands atop and beyond them all – A towering Adam-sized human being. His universal popularity and presence is bewildering. He is everywhere:  In Uttarakhand agitation, taking out “prabhat pheris” i

कराह

तुम्हारी उम्रों के पैर थके हुए नजर आते हैं कि वो चल रही हैं सफर अपना, और बहुत लाज़मी भी है बातों का उसी तरह घटित होना जैसा कि उनको होना है तुम्हारे वहाँ होने से जहाँ कि तुम हो भले ही तुम्हारा वहाँ होना सार्थक नहीं जान पड़ता क्यों चल रहे हो इतने मुखौटों को लेकर कि खुद की भी कोई खबर नहीं है, सड़कों पर रेंगकर मर जाने वाली जिन्दगियाँ उन तक कोई कराह नहीं पहुंचा पाती जहाँ पहुँचना लोकतंत्र में तय होना चाहिए 19 मई 2020

Bow, arrow and target!

Bow, arrow and target! Laden with the flowers of countless heavens And bloomed petals of thousand lotuses The ‘bow’ is OM Expressed into countless names and forms The individual Self, the ‘arrow’ is And, the Inexpressible, Inconceivable, Imperishable Brahman, the ‘target’ is In the silence of witnessing and watchfulness The ‘arrow’ should be pierced gently And tenderly grounded With the target hit, ‘arrow’ becomes the ‘target’ And gained is Oneness (Poem from my personal diary kept in between  the tranquil showers of Maandukya Upanishad and Guru Granth Sahib) Dr Deepak Bijalwan  Image from - https://randomrantingsofacreativemind.wordpress.com