एक बहुत बड़ी हवेली
जिसके अंदर सभी लोग दुनियाभर के
एक जैसे दिख रहे हैं एक ही जैसे हैं
इसके हर तरफ बहुत घूम लिया लेकिन
पता है इसमें कोई दरवाजा नही है
न ही खिड़की है कोई।
बाहर तो लोग एक जैसे नहीं है न
हिन्दू हैं, मुसलमान हैं,
अलग अलग रंग और जाति के हैं
लेकिन इस हवेली के भीतर
सभी एक से हैं,
एक ही जैसे कपड़े पहने हुए हैं
इसके अंदर जाया भी तो
नहीं जा सकता।
हाँ कुछ काँच जैसा पदार्थ है
जिसकी एक दीवार है एक तरफ
वहाँ से अंदर झाँका जा सकता है
और वहीं से दिख भी रहा है
वे सभी लोग हम पर हंस रहे हैं
ये काँच अगर होता तो इसको तोड़ा भी
जा सकता था
लेकिन पता नहीं क्या है।
बाहर आये दिन कहीं बलात्कार हो रहा है
तीन चार साल क्या
तीन चार महीने तक की बच्चियों से,
कहीं किसी का कत्ल हो जाता है
और भी न जाने
दिल को तोड़ मरोड़ के रख देने वाली घटनाएं
पर उधर अंदर लगता है
ऐसा कुछ हो ही नही सकता
अलग सी रौशनी है जो चमकती है
भीतर जेहन तक पहुंचती है।
यहाँ के लोग वहाँ कभी नहीं पहुंच सकते
न ही काबिलियत रखते हैं
पहुंचने की वहां
यहां सब लोग सड़ेंगे
गंध मारने लगेंगी सबकी देहें
और राख होकर कहीं समा जाएंगे मिट्टी में
कहीं भी किसी का भी
कोई नामो निशान नहीं रहेगा।
02 फरवरी 2019
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'अनपढ़'
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Dr. Deepak Bijalwan
Poet, Translator