किसी भी दिशा से
एक कतरा भी रौशनी का
आंखों के पटल पर
टिकता नहीं है,
स्याह समन्दर में
सूनी नाव पर
छः मुर्दे हैं जिनके पाँव
लटकते हैं नीचे
और नाव बगैर हिले डुले
किसी किनारे को खोजती है,
उधर दीवार पर टंगे हुए ख़्वाब
गिरने लगते हैं धरती पर
एक के बाद एक;
गहरे गड्ढे में काफी नीचे
एक कंकाल दिखता है
किसी इंसान का।
लम्बे नाखूनों को
चुभाते हुए
सूनेपन में
कहीं से कोई आवाज
सुनाई पड़ती है
वो जो नाव पर मुर्दे हैं
ये उनकी आवाज लगती है।
आज के वक़्त में
सभी लोग
मुर्दा ही तो हैं।
1 फरवरी 2019
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'अनपढ़'
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Dr. Deepak Bijalwan
Poet, Translator