कहीं कोई स्वप्न देख रहा है
और हम सब
किरदार हैं उस स्वप्न के
कुछ सहमे हुए,
कुछ हँसते-खेलते,
कुछ रोते हुए।
हजारों आकाशगंगाएं,
धरती, आसमान,
सूरज चाँद-तारे
आसमान भी क्या बस भ्रम
धुआँ धुआँ सा
सिर्फ शून्य
कोई बदन नही है,
आंखें नहीं हैं,
हाथ-पाँव नहीं हैं;
दर्द, खुशी, मोह्हब्बत
सब भ्रम है
हम खुद एक भ्रम हैं सब।
क्या सच है हमारा होना?
या किसी के बस में नहीं
सच तक पहुंच पाना।
थोड़ा हिचकते हुए
आँखें लौट आती हैं
शून्य से कहीं
मैं तो एक कुर्सी पर
बैठा हुआ हूँ।
एक पेड़
जो कि उगते हुए
ठीक मेरी आँखों के सामने,
हजारों पत्ते
हरे, सूखे, अलसाये हुए
क्या वो शून्य है
जिसमें धुआँ
कहीं से उठने वाला
एक पत्ता है
कैसा भी पत्ता;
मैं अगर सच हूँ
तो भ्रम क्या है
कुछ तो हो सकता है भ्रम
या फिर भ्रम खुद
एक भ्रम है।
02 फरवरी 2019
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'अनपढ़'
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Dr. Deepak Bijalwan
Poet, Translator