वो लालटेन तो नहीं लगती
पर कुछ रौशनी सी है
तुम्हे क्या लगता है
उस पहाड़ी पर
कोई लालटेन लिए होगा?
इस घने अंधेरे में
वो जो साये दिखते हैं
बड़े पेड़ों के
तुम उनसे मिले हो कभी?
कहीं भी
किसी उमड़ते खयाल के साथ
अक्सर मैं तो
होता हूँ उन्हीं के पास;
ये लौ
मोमबत्ती की
इतनी क्यों मचल रही होगी
कोई परवाना भी तो
कहीं नजर नहीं आता।
अभी उठ के कुछ
रौशनी तो कर दूं
रसोई में
खुद को भी
देख नहीं पा रहा हूँ।
अंगीठी भी सूनी है
वो मुझे ही नहीं
मेरे जैसे
तमाम लोगों को
आवाज दे रही है
उसमें उदास पड़ी राख
और धधकने को आतुर अँगारे
रो न पड़ें कहीं
हमें सिर्फ बोलते हुओं को नहीं
उन्हें भी सुनना है
जिनकी आवाज नहीं सुनाई देती।
7 feb 19
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'अनपढ़'
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Dr. Deepak Bijalwan
Poet, Translator