इस पुराने उधड़े हुए
फटे और चोटिल कोट को
जिस तरह सिलता हूँ मैं,
ठीक वैसे ही
जो कुछ भी टूटा है
या प्रतीत सा होता है
मेरे अंदर कहीं,
सिलता हूँ उसको इसी तरह।
सुई जब चलती है
धागे का बोझ अपने कंधों पर लादकर
निकलती है कपड़े के बीच से
वो होकर आती है
दर्द के अंधेरे कमरों से
तो वही सुई, उसी की तरह दिखती
जो कि मेरी उलझन कहो
या हर एक चीज़ से बातें
वो शाम गुजारती हुई आती है
गहराई में कहीं
और हंसी लबों तक
आ जाती है सरकते हुए
उसी की तरह मैं
अपने अंदर टूटे कतरों को
सिलता रहता हूँ
जोड़ता रहता हूँ।
30 जनवरी 2019
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'अनपढ़'
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Dr. Deepak Bijalwan
Poet, Translator