उसने बताया कि
बहुत ज्यादा दर्द है
मन होता है कि मरना बेहतर है
कोई कपड़ा बहुत कसकर
लपेटती है पेट पर
बांधती है
कि अहसास कम हो दर्द का
कि फिर जंगल की तरफ
घास काटने जाना है और
बहुत भारी बोझ लादकर
सर पर चलना है उसको मीलों
घर पहुंचने के लिए
कि दोपहर ढ़लते ही
अंदर बंधे जानवरों को
बाहर खूंटे पर बांधना है
जिस खूँटे पर
शायद बंधा है उसका हर दिन।
बासी रोटी के एक निवाले को
बनाकर सहारा
दवा खाकर कोशिश की
आराम करने की एक नाकाम सी
कि निकलना भी तो है
खेतों की तरफ काम पर।
चाहिए तो उसको आराम
पर वो करना नहीं चाहती
क्या मैं पहुंचकर उसके मन के पास
समझ सकता हूँ उसको
लगता तो मुश्किल सा है
क्योंकि मैं
एक पीढ़ी की खायी के
दूसरी तरफ हूँ।
रात के दस्तक देते ही
वेदना में
बहुत सुस्ताये से चेहरे को लेकर
बढ़ती है दिए की तरफ
कि सिलसिला दुआओं का
उनके लिए
जो उसके पास हैं भी नही।
19 सितंबर 2018
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'अनपढ़'
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Dr. Deepak Bijalwan
Poet, Translator