वहाँ,
जहाँ मैं
खुद को पाता हूँ बैठा हुआ
निर्जन अकेले में
ठहरे हुए गहन
खामोश काले दरिया के पास
बीहड़ जंगलों की भयावह चुप्पी में
वहाँ कोई नहीं आता
भटककर भी नहीं
न कोई आना चाहता है।
वो चहचहाता हुआ परिन्दा
तालाब के ऊपर
मंडराने लगता है
मैं मुर्दा नही हूं वहाँ पर
जागती साँसों के उजाले में हूं।
वो भी कहीं
मेरे पास तो नही बैठना चाहता
पर उसके पास पर हैं
और उड़ जाता है वो
असीम शून्य में
मैं फिर
अकेला हो जाता हूँ
तलाशता सा हुआ कुछ।
थकी सुस्तायी हुई पलकें
गिरने लगती हैं
आँखों पर
और सहसा
नींद समा लेती है मुझे
अपने भीतर।
31 जनवरी 2019
Copyright @
'अनपढ़ '
Comments
Post a Comment
Dr. Deepak Bijalwan
Poet, Translator