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उतर जाना मेरे भीतर...

आओ कि मैने बिछाई है चाँदनी
शाम के महकते आंगन में
अंगीठी अपनी गर्म थपकियों से
मुझे सहेजती है।
ये बीहड़ धरती
मेरे आये दिन के कामों की
और ये गहनाता, उड़ता हुआ धुआँ
बनाता हुआ घरौंदे
आवारा भटकते बादलों के
तुम्हे स्पर्श करते हुए
मेरे बहुत करीब पहुँचता है।

ठिठुरती हुई पूस की रातें
और कानों में चीखता हुआ
सन्नाटा और ऐसे में
सभी उजाले गहरी नींद में सोए हुए
बस अब सही वक्त है
तुम्हें कोई अवरोध नही मिलेगा
चुपके से
ऊँघती हुई खिड़की से होकर
उतर जाना मेरे भीतर।

राख को कुरेदकर
हवा दो या बुझा दो
कुछ तो करो
बेख़बर, बेसुध सा
कब तक रहूँ।

कि रियायतें जीने में भी
ये हरगिज बेतुकी बातें
काटने- छांटने में क्यों रहो उलझे हुए
जो भी है उसको
खुद में बहाकर चलो
जैसा भी है
कि कोई शक्ल जिंदगी की नही है
हर दफा बेशक्ल सा क्षण
और जिंदगी की एक कोशिश
खुद को करने की परिभाषित।

10-16 जनवरी 2019
Copyright @
'अनपढ़'


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Dr. Deepak Bijalwan
Poet, Translator

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