सफर हंसी था तो मगर साथ तुम न थी
फिजायें थी खुशनुमा बहुत मगर साथ तुम न थी।
घरौंदे रेत के बनाये कई मैंने और उनमें
मुद्दतों मैं रहा भी मगर साथ तुम न थी।
महकते दरख्तों की शाखों पे लम्हे जिये
सन्नाटों को सुना भी मैंने मगर साथ तुम न थी।
ताकता रहा रातभर चाँदनी के सुकून को
बात भी हुयी चाँद से मगर साथ तुम न थी।
हर कदम पे सफर को जिया जिंदादिली से है
मगर है अधूरा सा कुछ क्योंकि साथ तुम न थी।
खुद से हो गयी मोह्हब्बत बेइंतहां है अब
तुम्हे भुला ही चुका हूँ क्योंकि साथ तुम न थी।
27 अगस्त 2015
Copyright@ D.B. 'Anpadh'
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Dr. Deepak Bijalwan
Poet, Translator