बीत गया है,
एक बहुत बड़ा हिस्सा वक़्त का
गौर नही किया किसी ने
सजी हुई किताबों पर
लाइब्रेरी में।
इन किताबों के शब्द
बेजान तो हैं
पर रखते हैं
खुद में जिंदादिली।
न जाने कितनी हैं
हजारों में शायद
हर जगह सजी हैं
लाइब्रेरी में
जो मांगती हैं नजरें
उनपे
गौर करने के लिए।
वहीं पास के कैंटीन में
सैकड़ों युवा हैं
चीखते चिल्लाते रहते हैं
न जाने क्या - क्या।
बेचारा वो
ऊँघता रहता है,
मेरे पैरों की आहट
सीढ़ियों पर रीडिंग रूम के
जब भी
पड़ती है उसके कानों में
एक अलार्म की तरह,
हड़बड़ाहट में
आंखें खुलती हैं उसकी और
सो जाती हैं फिर।
मैं आलमारी से
कोई किताब निकालकर
शब्दों से बातें करने लगता हूँ।
ऐसा अक्सर होता है
यहां तो
ऐसा ही है।
5 अगस्त 2015 & 10 सितंबर 2018
Copyright@ 'अनपढ़'
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Dr. Deepak Bijalwan
Poet, Translator