कुछ ढूंढता हुआ......
कि एक कहानी शुरू करूँगा मैं
इससे पहले
गहरी एक सांस ले लूं,
जी भर के बातें करूँगा
हर एक किरदार से मैं
और कोशिश करूंगा
समझने की
हालातों को नायक के
कि हर एक पहलू
खुद में समेटे हुए है
बहुत कुछ।
सलीखा कब उतरता है
इंसान में
परिपक्वता जिसे कहते हैं,
क्या उम्र के साथ
या हालातों का हाथ पकड़कर?
धूप चमक रही है
आँखों पर
इस खिड़की से
कि मैं खिसका देता हूँ ये पर्दा
और आराम से
बैठ जाता हूँ कुर्सी पर।
देख लेता हूँ
घड़ी की तरफ भी
एक दौड़ती नजर,
हालांकि वक़्त बहुत है,
नहीं होता कई बार
लेकिन
जो हम चाहते हैं
उसके लिए
आसमान से वक़्त का टुकड़ा लेकर
रख लेते हैं हम
जेबों में अपनी।
तुम कुछ ढूंढ रहे हो क्या?
मुझे बताओ,
शायद कुछ मदद कर पाऊं।
बेहद अजीब होता है
कई दफे ये इंतजार
और समझते भी हैं हम
कि सिर्फ आंखों पर अपनी
एक पर्दा डाले हुए हैं,
होना नही है कुछ और
न किसी को आना है।
चाबी के छल्ले को
अपने दायें हाथ की
किसी उंगली में डालकर
घुमाते रहो काफी देर तक और
देखते रहो
किसी बेजान चीज की तरफ।
वो जो गुम्बद
नजर आता है मंदिर का
पहाड़ की चोटी पर
उसके पीछे एक सफेद बादल भी है,
हालांकि
कोई खास मतलब नही है मेरा,
मैं लौटा लेता हूँ
अपनी निगाहें वहां से।
कल जिस जगह
पेड़ की छांव में आया था
आज फिर
वहीं आकर बैठ गया हूँ।
क्या कुछ कर रहा हूँ मैं?
या कोई कोशिश है मेरी?
शायद नही लेकिन,
उधेड़बुन मुझे अक्सर
मेरे पास ले आती है।
ये एक जरिया है क्या?
खुद में उतरने का
या बाहर
दुनिया की तरफ
देखने का।
5 सितंबर 2018
Copyright @ 'अनपढ़'
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Dr. Deepak Bijalwan
Poet, Translator